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पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/४६

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दूसरे दिन मिश्रजी ने उन लोगों से पूछा तो उत्तर मिला—"वह बबुआ नहीं था, वह तो हमारा एक नातेदार था—उसकी शकल बिलकुल बबुआ से मिलती है।" रामसिंह ने कहा।

पण्डितजी अपनी जुगनू जैसी आँखें टिम-टिमाते हुए बोले, "अच्छा !"

"जी हां।"

"और हमने समझा बबुआ है। यह अच्छी दिल्लगी रही।" कहकर मिश्रजी हँस दिये।

इस प्रकार बबुआ ने मिश्रजी को बेबकूफ बनाकर अपना पिण्ड बचाया। मिश्र जी को विश्वास हो गया कि वह बबुआ नहीं था।

( ३ )

घर में एक छोटा सा कमरा बबुआ के लिए अलग था। एक दिन मिश्रजी को कुछ सादे कागज की आवश्यकता पड़ी। संयोगवश उनके पास कागज नहीं था। अतः आपने सोचा कि बबुआ के कमरे में होगा। यह सोचकर बबुआ के कमरे में पहुँचे। इधर-उधर देखा परन्तु कागज न दिखाई पड़ा। एक ओर एक अल्मारी थी। उसमें एक छोटा ताला लटक रहा था। आपने सोचा इस अलमारी में होगा, परन्तु ताला लगा है। आप यह सोच रहे थे और हाथ से ताले को पकड़ कर हिला रहे थे, इसी समय ताला खुल गया। आप बड़े प्रसन्न हुए। सोचा--ताले में चाबी लगी नहीं खुला रह गया। यह सोचते हुए अल्मारी खोली। कागज की खोज में दृष्टि तो दौड़ाई तो ऊपर के खाने में तीन-चार श्वेत गोले से दिखाई पड़े। आपने एक गोला उठाकर बाहर निकाला और रोशनी में उसे जो देखा तो ऊँह कहकर हाथ से छोड़ दिया। गोला फर्श पर गिरकर टूट गया और उसकी कुछ छीटें मिश्रजी के पैरों पर पड़ी। मिश्रजी नाक दाब कर बोले, "अण्डा!" और बाहर भागे। बाहर निकल कर आपने उसी समय स्नान किया और बड़े क्रोध में भरे