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पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/६१

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पीसने में जुटा है। दद्दू को देखते ही बोला---"आऔ दद्दू! बस तयार ही है---छानना बाकी है।"

"हाँ! हाँ! खूब मजे से छानो, कोई जल्दी नहीं है।"

"बस तैयार है। मोहन जाकर दो पैसे की बरफ तो ला, ले यह पैसे। दद्दू स्नान भी करोगे?"

"हां! इच्छा तो है। शौच भी जायँगे।"

"तो दद्दू उस पार रेती में जाओ।"

"सो तो जायँगे ही।"

थोड़ी देर में भाँग तैयार होगई। दद्दू ने भाँग पीकर एक नाव वाले को पुकारा। उसकी नौका में बैठ कर बीच गङ्गा की रेती में गये।

लोटे में पानी लेकर रेती में चले गये। कुछ दूर निकल जाने पर दद्दू ने कुछ दूरी पर दो मनुष्यों की धुँधली मूर्ति देखी। संध्या का अन्धकार बढ़ रहा था।

शौच से निवृत्त होकर जब दद्दू नौका की ओर लौटें तो वे दोनों मूर्तियाँ भी आगई थीं। उनकी नौका अलग खड़ी थी। उस नौका पर एक वृद्धा स्त्री बैठी हुई थी। दोनों मूर्तियों में एक तो पुरुष था दूसरी स्त्री। पुरुष की वयस चालीस के लगभग थी। स्त्री तरुणी, २५, २६ वर्ष की तथा साधारणतया सुन्दरी थी।

स्त्री वृद्धा के पास नौका में बैठ गई। नौका चल दी। पुरुष रह गया।

दद्दू की ओर बढ़कर उसने पूछा---"यह आपकी नाव है?"

"हाँ कहिये?"

"कुछ नहीं, उस पार जाना था।"

"तो आइये बैठिये---मैं जा रहा हूँ।"

"आपको कोई कष्ट....।"

"अजी साहब---नाव में तमाम जगह है। कष्ट की कौन बात है।"

"धन्यवाद!"

दोनों नौका में बैठकर चले। दद्दू ने पूछा----"आप यहीं रहते हैं।"