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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/११

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भूमिका

कालिदास का समय

कालिदास कब हुए, इसका पता ठीक ठीक नहीं लगता । इस

विषय में न तो कालिदास ही ने अपने किसी काव्य या काम नाटक में कुछ लिखा और न किसी और ही प्राचीन कवि या ग्रन्थकार ने कुछ लिखा। प्राचीन भारत के विद्वानों को इतिहास से विशेष प्रेम न था । इस लोक की लीला को त्र्प्राल्पकालिक जान कर वे उसे तुच्छ दृष्टि से देखते थे। परलोक ही का उन्हें विशेष ख़याल था । इस कारण पारलौकिक समस्याओं को हल करना ही उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा उद्देश समझा। ऐसी स्थिति में कवियों और राजानों का चरित कोई क्यों लिखता और देश का इतिहास लिख कर कोई क्यों अपना समय खोता।

यह आख्यायिका प्रसिद्ध है कि कालिदास विक्रमादित्य की सभा के नव- रत्नों में थे । नौ पण्डित उनकी सभा के रत्नरूप थे, उन्हीं में कालिदास की गिनती थी । खोज से यह बात भ्रममूलक सिद्ध हुई है। “धन्वन्तरि- क्षपणकामरसिंहशङ कु"-आदि पद्य में जिन नौ विद्वानों के नाम आये हैं वे सब समकालीन न थे। वराहमिहिर भी इन्हों नौ विद्वानों में थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में लिखा है कि शक ४२७, अर्थात् ५०५ ईसवी, में इसे मैंने समाप्त किया। अतएव जो लोग ईसा के ५७ वर्ष पूर्व उज्जेन के महाराज विक्रमादित्य की सभा में इन नौ विद्वानों का होना मानते हैं वे भूलते हैं। पुरातत्त्व-वेत्ताओं का मत है कि कालिदास विक्रमादित्य के समय में ज़रूर हुए, पर ईसा के ५७ वर्षे पहले नहीं। ईसा के चार पाँच सौ वर्ष बाद किसी और ही विक्रमादित्य के समय में वे हुए । इस राजा की भी राजधानी उज्जेन थी। यह नया मत है। इसके पोषक कई देशी और विदेशी विद्वान् है। इन विद्वानों में कई एक का तो यह कथन है कि कालिदास किसी