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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१६७

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आठवाँ सर्ग।

होता है जैसे उनके हृदय में किसी ने भाला गाड़ दिया हो। परन्तु जो पण्डित हैं उन्हें ठीक इसका उलटा भास होता है। उनका, हृदय तो और हलका हो जाता है। उन्हें तो ऐसा जान पड़ता है कि उनके हृदय में गड़े हुए भाले को किसी ने खींच सा लिया। बात यह है कि समझदार आदमी मृत्यु को सुख प्राप्ति का द्वार समझते हैं। वे जानते हैं कि यदि मृत्यु न हो तो मनुष्य के भावी कल्याण का द्वार ही बन्द सा पड़ा रह जाय। अपने शरीर और आत्मा का भी तो साथ सदा नहीं रहता। उनका भी सदा ही संयोग और वियोग हुआ करता है। इस दशा में यदि बाहरी विषयों अथवा पदार्थों से किसी का सम्बन्ध छूट जाय—यदि उनसे उसे सदा के लिए अलग होना पड़े—तो, आपही कहिए, समझदार आदमी को क्यों सन्तप्त होना चाहिए? ज़रा इस बात को तो सोचिए कि जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध भी स्थायी नहीं तब और वस्तुओं का सम्बन्ध किस तरह अविच्छिन्न रह सकता है? आप तो जितेन्द्रिय जनों में सब से श्रेष्ठ हैं। इससे साधारण आदमियों की तरह आपको शोक करना उचित नहीं। यदि वायु के वेग से पेड़ों की तरह पर्वत भी हिलने लगें तो फिर उन दोनों में अन्तर ही क्या रहा? फिर तो पर्वतों की 'अचल' संज्ञा व्यर्थ हो गई समझिए"।

उदारात्मा वशिष्ठ का यह उपदेश, उस मुनिवर के मुख से सुन कर, अज ने कहा—"गुरुवर का कथन बहुत ठीक है"। यह कह कर और महर्षि के वचनों को सादर स्वीकार कर के उसने उस मुनि को भक्तिभावपूर्वक बिदा किया। परन्तु उसका हृदय इन्दुमती के शोक से इतना परिपूर्ण हो रहा था कि उसमें महर्षि वशिष्ठ के उपदेश को ठहरने के लिए जगह ही न मिली। अतएव उसे, उस मुनि के साथ ही, वशिष्ठ के पास लौट सा जाना पड़ा।

इस समय अज का पुत्र दशरथ बिलकुल ही अबोध बालक था। अतएव मधुरभाषी सत्यव्रत अज ने, पुत्र के बचपन के आठ वर्ष, कभी अपनी प्रियतमा रानी का चित्र देख कर और कभी पल भर के लिए स्वप्न में उसके दर्शन कर के, किसी तरह, बड़ी मुश्किलों से बिताये। महल की छत तोड़ कर पीपल का पेड़ जैसे भीतर चला जाता है वैसे ही इन्दुमती की मृत्यु का शोक-शर अज की छाती को फाड़ कर बलपूर्वक भीतर धँस गया। परन्तु इससे उसने अपनी भलाई ही समझी। उसने कहा—"बहुत अच्छी बात है जो इस शोक-शर ने मेरे हृदय में इतना गहरा घाव कर दिया। इसकी दवा वैद्यों के पास नहीं। यह अवश्य ही मेरी मृत्यु का कारण होगा"। बात यह थी कि वह अपनी प्यारी रानी का अनुगमन