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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२१

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कालिदास का समय।

मालव-संवत् कहलाता था। पीछे से उसका नाम विक्रम संवत् हुआ । सारांश यह कि कालिदास विक्रमादित्य के सभा-पण्डित जरूर थे, पर दो हजार वर्ष के पुराने काल्पनिक विक्रमादित्य के सभा-पण्डित न थे। ईसा के पाँच छः सौ वर्ष बाद मालवा में जो विक्रमादित्य हुआ-चाहे वह यशोधर्मा हो, चाहे और कोई-उसी के यहाँ वे थे। पर प्रसिद्ध विद्वान् चिन्तामणिराव वैद्य, एम० ए० ने विक्रम संवत् पर एक बड़ाही गवेषणापूर्ण लेख लिख कर इन बातों का खण्डन किया है। उन्होंने ईसा के पहले एक विक्रमादित्य के अस्तित्व का ग्रन्थ-लिखित प्रमाण भी दिया है और यह भी सिद्ध किया है कि इस नाम का संवत् उसी प्राचीन विक्रमादित्य का चलाया हुआ है । अतएव वैद्य महाशय के लेख का भी सार सुन लीजिए।

डाकर कीलहान के मन में, नाना कारण से, विक्रम संवत् के विषय में एक कल्पना उत्पन्न हुई। उन्होंने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि इस संवत् का जो नाम इस समय है वह प्रारम्भ में न था। पहले वह मालव- संवत् के नाम से उल्लिखित होता था। अनेक शिला-लेखों और ताम्रपत्रों के आधार पर उन्होंने यह दिखाया कि ईसा के सातवें शतक के पहले लेखां और पत्रों में इस संवत् का नाम मालव संवत् पाया जाता है। उनमें अङ्कित "मालवानां गणस्थित्या' पद का अर्थ उन्होंने लगाया-मालव देश की गणना का क्रम । डाकर साहब का कथन है कि ईसा के छठे शतक में यशोधा नाम का एक प्रतापी राजा मालवा में राज्य करता था । उसका दूसरा नाम हर्षवर्धन था । उसने ५४४ ईसवी में, हणेां के राजा मिहिरगुल को मुलतान के पास कोरूर में परास्त करके हूणां का बिलकुलही तहस नहस कर डाला। इस जीत के कारण उसने विक्रमादित्य उपाधि ग्रहणा की। तबसे उसका नाम हुमा हर्षवर्धन विक्रमादित्य । इसी जीत की खुशी में उसने पुराने प्रचलित मालव-संवत् का नाम बदल कर अपनी उपाधि के अनुसार उसे विक्रम संवत् कहे जाने की घोपणा दी। साथ ही उसने एक बात और भी की। उसने कहा, इस संवत् का ६०० वर्ष का पुराना मान लेना चाहिए, क्योंकि नये किंवा दो तीन सौ वर्ष के पुराने संवत् का उतना आदर न होगा। इसलिए उसने ५४४ में ५६ जोड़ कर ६०० किये । इस तरह उसने इस विक्रम संवत् की उत्पत्ति ईसा के ५६ या ५७ वर्ष पहले मान लेने की आज्ञा लोगों को दी।

इस संवत् के सम्बन्ध में जितने वाद, विवाद और प्रतिवाद हुए है, सब का कारण डाकर कीलहान का पूर्वोक्त लेख है। पुराने जमाने के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में "मालवानां गणस्थित्या" होने से ही क्या यह सिद्ध माना जा सकता है कि इस संवत् का कोई दूसरा नाम न था ? इसका कोई प्रमाण नहीं कि जिस समय के ये लेख और पत्र हैं उस समय