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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/१०७

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९—नल का दुस्तर दूतकार्य्य
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अपने सेवकों को भी कभी-कभी ऊँची से ऊँची कृपा का पात्र समझ लेते हैं। सुराङ्गनाओं के सम्पर्क से सुखी महेन्द्र की यह मनोवाञ्छा कदापि उचित नहीं। सैकड़ों हसनियो ने जिस सरोवर की शोभा को बढ़ाया है, वह यदि किसी अन्य तुच्छ जल-चारिणी चिड़िया की आकांक्षा करे तो उसकी ऐसी नीच आकांक्षा उसकी विडम्बना का कारण हुए बिना नहीं रह सकती। दिगीश्वर चाहे कुछ ही क्यों न कहें, उनकी बातें सुनने के लिए मैं बहरी बन रही हूं। मत्त गजराज के विषय में कुरङ्ग-कन्या क्या कभी अपना मन चलायमान कर सकती है? यदि करे तो उसका यह काम बहुत ही असंगत हो।

इतना कह कर दमयन्ती ने सिर नीचा कर लिया और चुप हो गई। उसका इशारा पाकर उसकी एक सहेली उसके पास गई। उसके कान में दमयन्ती ने कुछ कहा। तब सहेली ने नल को सम्मुखीन करके इस प्रकार उत्तर दिया—

लज्जा और संकोच के कारण मेरी सखी दमयन्ती इस विषय में और कुछ नहीं कह सकती। मेरे हृदय के भीतर घुस कर जो कुछ उसने कहा है, उसे अब आप मेरे मुँह से सुन लीजिए।

इसने अपना चित्त, बहुत दिन हुए, निषध-नरेश को दे डाला है। यह उन्हीं की हो गई है। अतएव, जिस बात की इच्छा आप इसमें रखते हैं, उसे कर दिखाना तो दूर रहा, उसकी चिन्तना तक करते इसे डर लगता है। सती स्त्रियों की स्थिति बहुत ही नाजुक होती है। मृणाल-तन्तु की तरह, जरा-सा भी धक्का लगने से, वह टूट जाती है। वह यह कहती है कि स्वप्न में भी, मैंने नल को छोड़ कर और किसी के पाने की कभी इच्छा नहीं की। तुम्हारे ये चारों देवता तो सर्वज्ञ है। फिर ये अपनी समस्त-साक्षिणी बुद्धि से ही यह बात क्यों नहीं पूछ देखते? उन्हे सब कुछ ज्ञात है,