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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/११७

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९—नल का दुस्तर दूत-कार्य
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विलास से क्या तूने उसे नहीं देखा? लीला कमल को हाथ में लेने के बदले अपने मुख को क्यों तूने उस पर रख छोड़ा है। मुख को लीला-कमल बनाने का कारण क्या? तेरे नेत्रों से बहने वाले अमङ्गल अश्रुओं को ला, मैं अपने हाथ से पोछ दूँ। ला, मैं अपने मस्तक से तेरे पद पङ्कजो की रेणुका का क्षालन करके उसके साथ ही अपने अपराधों का क्षालन करा लूँ। प्रिये! यदि तू मेरा आदर-सत्कार करके मुझ पर अनुग्रह नहीं करना चाहती तो न कर। पर मैं तेरे सामने सिर झुकाए खड़ा हूं। इससे मेरा प्रणाम तो तुझे स्वीकार ही कर लेना चाहिए। यह तो कोई बड़े परिश्रम का काम नहीं। याचकों के लिए तो तू कल्पवृक्ष हो रही है, पर मेरी तरफ एक बार अच्छी तरह देखती भी नहीं मुझे दृष्टिदान तक नहीं देती! मुझसे इतनी कंजूसी क्यों? आँखों से आँसुओं की झड़ी बन्द कर; मन्द मुसकान रूपी कौमुदी को फैलने दे; मुख-कमल को विकसित होने दे; नेत्र खञ्जरीटो को यथेच्छ विहार करने दे। बोल-बोल। अपनी मधुमयी वाणी सुनाकर मेरे मुरझाए हुए हृदय-पुष्प को फिर प्रफुल्लित कर दे। चन्द्रमा की निशा-नारी के समान तू ही नल की एक मात्र प्राणाधार है।

इतना कह चुकने पर नल का उन्माद अक्समात् जाता रहा। उसे होश आ गया। यह जान कर कि जो बातें मुझे न कहनी थीं वे भी मैंने कह डाली, उसे घोर परिताप हुआ। वह बोला—

हाय! मुझे क्या हो गया। क्यों मैंने इस तरह अपने को प्रकट कर दिया? इन्द्र मुझे अब क्या कहेगा? उसके सामने तो अब मैं मुँह दिखलाने लायक भी न रहा! अपना नाम अपने मुँह से बतला कर मैंने दिगीश्वरों का काम मिट्टी में मिला दिया। हनूमान आदि के उपार्जित यश से जो दूत पथ इतना