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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/५१

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३—कवि और कविता
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कदापि उचित नहीं। इससे आख्यायिकार को इतना वेसलीकापन साबित नहीं होता, जितनी उसकी अज्ञता और लोकवृत्तान्त से अनभिन्नता, या ज़रूरी अनुभव प्राप्त करने से वेपरवाई साबित होती है। जैसाकि "वदरे मुनीर" में एक ख़ास मौके और वक्त का समाँ इस तरह बयान किया है—

वो गाने का आलम वो हुस्ने वुनँ,
वो गुलशन की खूबी वो दिन का समाँ।
दरख्तों की कुछ छाँव और कुछ वो धूप,
वो धानों की सब्जी वो सरसों का रूप॥

आख़ीर मिसरे से साफ प्रतीत होता है क एक तरफ धान खड़े थे और एक तरफ सरसों फूल रही थी। मगर यह बात बाक़े के खिलाफ है, क्योंकि धान खरीफ में होते हैं और सरसों रवी में, गेहुँओं के साथ बोई जाती हैं।

कवि-कुल गुरु कालिदास के विश्व विख्यात काव्य, तथा कविवर बिहारीलाल की सतसई से, इसी विषय का, एकाएक प्रत्युदाहरण सुनिये—

इक्षुच्छायनिपादिन्यस्तस्य गोत्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकथोद्घातंशालिगोष्यों जगुर्यशः॥

रघुवंश॥

रघु की दिग्विजयार्थ यात्रा के उपोद्घात में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघु का यश गाती थीं। शरद्-काल में जब धान के खेत पकते हैं तब वह इतनी-इतनी बड़ी हो जाती है कि उसकी छाया में बैठकर खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत भी प्रायः पास ही पास हुआ करते है। कवि को ये सब बातें विदित थी। श्लोक में इस दशा का—इस वास्तविक घटना का—