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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/६८

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रसज्ञ-रञ्जन
 

दिया। नायिकाऐ ही शृंगार-रस की अवलम्बन हैं, और शृंगार रस ही सब रसों का राजा है। राजा का जीवन ही जब इन नायिकाओं पर अवलम्बित है तब कहिए क्यों हमारे पुराने साहित्य में इनकी इतनी प्रतिष्ठा न हो? इनकी कीर्ति का कीर्तन करके क्यों कविजन अपनी वाणी को सफल न करे? और इन्हीं की बदौलत नाना प्रकार के पुरस्कार पाकर क्यों न वे अपने को कृत्यकृत्य मानें?

कृष्ण, राधा, गोपिका, वृन्दावन, यमुना, कुञ्जकुटीर आदि ने नायिका-भेद के वर्णन में विशेष सहायता पहुँचाई है परन्तु यदि कोई यह कहे कि यह भेद-वर्णन राधाकृष्ण के उपासना तत्व से सम्बन्ध रखता है तो उसका कथन कदापि मान्य नहीं हो सकता। नायिकाओं में "सामान्य" एक ऐसा भेद है जिससे कृष्ण का कोई सम्पर्क नहीं, और नायिका-भेद के आचार्यों ने कृष्ण की नायिकाओं के भेद नही किये, किन्तु सामान्य रीति से नायिका-मात्र की भेद-परम्परा बतलाई है अतएव कृष्ण के उपासकों के लिए इस विषय पर कृष्ण का सम्बन्ध न बतलाना ही अच्छा है।

जहाँ तक हम देखते हैं स्त्रियों के भेद-वर्णन से कोई लाभ नहीं, हानि अवश्य है; और बहुत भारी हानि है। फिर हम नहीं जानते, क्या समझकर लोग इस विषय के इतने पीछे पड़े हुए है। आश्चर्य इस बात का है कि इस भेद-भक्ति के प्रतिकूल आज तक किसी ने चकार तक मुख से नहीं निकाला। प्रतिकूल कहना तो दर रहा, नायिकाओं की नई-नई चेष्टाओं का वर्णन करने वालों को प्रोत्साहन और पुरस्कार तक दिया गया है। इस प्रोत्साहन का फल यह हुआ कि नवोढ़ा आदि नायिकाओं के सम्बन्ध में कवियों को अनन्त स्वप्न देखने पड़े है। हिन्दी के समान बंगला, मराठी, गुजराती भाषाएँ भी संस्कृत से निकली है, परन्तु इन