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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/८६

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रसज्ञ-रञ्जन
 

मोती सद्दश निर्मल जल की उपमा मोती से देते देते लोगों ने जल को ही मोती मान लिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। अतएव—की हंसा मोती चुगैं की भूखे रह जायँ" आदि में मोती चुगने से मतलब मोती के समान निर्मल जल पीने से जान पड़ता है। यह पीने की बात हुई। अब खाने की बात का विचार कीजिए। नैषधचरित के पहले सर्ग में लिखा है कि राजा नल ने एक हंस पकड़ा। हंस आदमी की बोली बोलता था। उसने राजा से कह—"फलेन मूलेन च वारिभूरूही मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः। अर्थात पानी में पैदा होने वाले पौधों और बलों के फलों और कन्दों से मैं मुनियों के समान अपना जीवन-निर्वाह करता हूँ। भामिनी-विलास में जगन्नाथराय ने हंस की एक अन्योक्ति कही है, यथा—

भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता—
न्यम्बूनि यत्रनलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस! वद तस्य सरोवरस्य।
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकार?

रे राजहंस! जिसके आश्रय में रह कर तूने मृणालदण्डों को खाया, जल-पान किया, और नलनों का स्वाद लिया उस सरोवर को तू किस प्रकार प्रत्युपकार करेगा? मेघदूत में कालिदास कहते हैं—

आकैलाशाद् बिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः।
सम्यत्स्यन्ते नमसि भवतो राजहंसाः सहायाः॥

अर्थात् बिस और किसलय रूपी पाथेय (रास्ते में खाने-पीने की सामग्री) लेने वाले राजहंस आकाश में, कैलास पर्वत से आप (मेघ) के साथी या सहायक होंगे। विक्रमोर्वती में भी कालिदास एक जगह कहते हैं—