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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/११८

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१२० रसिकप्रिया खेल को खेल (आरोपित या असत् व्यापार) नहीं रहने दिया, वास्तविक कर दिया। अलंकार-द्वितीय पर्यायोक्ति, उपमा । सहेली के घर को मिलन, यथा ( कबित्त) (१६६) नैनिन के तारनि में राखी प्यारे पूतरी कै, मुरली ज्यौं लाइ राखौ दसन-बसन में । राखौ भुजबीच बनमाली बनमाला करि चंदन ज्यों चतुर चढ़ाइ राखौ तन में । केसौराइ कलकंठ राखौ बलि कठुला के, करम करम क्योंहूँ पानी है भवन में । चंपक-कली ज्यों कान्ह सूंघि स॒घि देवता ज्यों, लेहु मेरे लाल, इन्हें मेलि राखौ मन में ।२७) शब्दार्थ-तारनि = तारों में। पूतरी- अाँख की पुतली । ज्यों-तरह । लाइ% लाकर । लाइ राखौ = ला रखो, लगा रखो। दसन-बसन = दांत का वस्त्र, अधर, अोठ। बनमाली= श्रीकृष्ण । बनमाला = घुटनों तक या 'पैरों तक लंबी माला। चतुर = हे चतुर । कलकंठ = सुदर कंठवाली, मधुर वाणी बोलनेवाली। कठुला = गले का हार । करम करम= क्रम क्रम से धीरे धीरे सिखा-पढ़ाकर । पानी है भवन में = इन्हें घर तक ले आई हूँ। क्योंहूँ = किसी प्रकार । देवता =देवी । लाल = श्रीकृष्णलाल । मेलि राखौ- धारण कर लो। अलंकार-उपमा। धाइ के घर का मिलन, यथा -( कबित्त ) (१६७) हँसत खेलत खेल मंद भई चंददुति, कहत कहानी और बूझत पहेली-जाल । केसीदास नींदबस अपने हरें हरें उठि गए बालिका सकल बाल । घोरि उठे गगन सघन घन चहूँ दिसि, उठि चले कान्ह धाइ बोलि उठी तिहि काल । आधी राति अधिक अँध्यारे माँझ जैहो कहाँ, राधिका की आधी सेज सोइ रहौ प्यारे लाल ।२८। २७-केसौराइ-केसौदास | कलकंठ०--गल मेलि राखो कलकंठी कंठा कल 'कबुला कै । बलि करि, कुल । क्योंहूँ--केहूँ । सूंघिर--सोंधी सूंघो, सो धी सूधी । ज्यों-सी। २८-खेलता-बोलत मांझ। और-अरु । बस-सिसु । घर-घरै,। गए-- गई। बालिका-ग्वालिक अंध्यारै-अंधेरी । सोइ-पौढ़ि। प्यारे लाल-नंदलाल । अपने घर,