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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१३१

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षष्ठ प्रभाव १३३ शब्दार्थ-मारहू = कामदेव से भी। सयान = चतुराई । तकिकै = ध्यान में लाकर, प्रयोग करके । हारे०- हृदय में परेशान होकर हार मान गए । लौटि = पलटकर, उलटे ही । स्याम घन = घनश्याम श्रीकृष्ण । भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) हे सखी, अाज शोभा से युक्त वृषभानुनंदिनी ( राधा ) सौंदर्य और मान के मद (नशे ) में छकी बैठी थों । काम से भी सुकुमार श्रीकृष्णजी ने उन्हें मनाने के लिए सब प्रकार के चातुर्य का प्रयोग किया। वे हँस हँसकर शपथ करते एवम् बारबार पैरों पड़ते थे । वे जब ( अनेक उपाय करके ) मन में परेशान होकर हार मान गए और फिर भी मानभंग न हुआ, तभी एकाएक काले बादल जोर जोर से गरजने लगे। तब तो राधिका ( स्वयम् ) उलटे ही लपककर विषली की भांति घनश्याम की छाती से जा लगीं। श्रीकृष्णजू को मद हाव, यथा-( सवैया ) (२०६) मनमोहिनी मोहि सकै न सखी चपला चलचित्त बखानत हैं रति की रति क्योंहूँ न कान करें दुतिचंदकला घटि जानत हैं। कहि केसव और की बात कहा रमनीय रमाहूँ न मानत हैं। बृषभानुसुता हित मत्त मनोहर औरहिं डीठि न आनत हैं ।२६॥ शब्दार्थ-मनमोहिनी = मन को लुभानेवाली कोई अन्य स्त्री । चपला बिजली को। चलचित्त : चंचल चित्त वाली। रति = कामदेव की पत्नी । बखानत हैं = कहते हैं। रति = प्रीति । कान न करना = ध्यान देने योग्य न समझना । रमनीय = सुदरी । रमाहूँ = लक्ष्मी को भी । हित = लिए, वास्ते। मनोहर श्रीकृष्ण । डीठि न आनत = आँख में नहीं लाते, उनकी श्रीख में और कोई महिला नहीं चढ़ती। अलंकार-प्रतीप। अथ विभ्रम हाव-लक्षण--( दोहा ) (२१०) बास बिभूषन प्रम तें, जहाँ होहिं विपरीत । दरसन-रस तन मन रसित, गनि विभ्रम की रीत ।३०। श्रीराधिकाजू को विभ्रम हाव, यथा-( सवैया ) -वास = वस्त्र । बिभूषन = गहना । प्रेम ते प्रेम के कारण। होहिं = हो जाएँ। बिपरीत = अंडबंड, उलटे पलटे। दरसन-रस = देखने का आनंद । रसित - आनंदित ( होता है)। रीत = रीति (ढंग)। श्री राधिकाजू को विभ्रम हाव, यथा-( सवैया) (२११) कटि के तट हार लपेटि लियो कल किंकिनी लै उर सों उरमाई । कर नूपुर सों पग पौंची रची अँगिया सुधि अंचल की बिसराई। २६-मन-महि । ३०-वास-बाँकु, वाक । होहि-होइ । दरसन-रस- दरस दरसि। की रीति-के गीत । शब्दार्थ-