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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१४९

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१५२ रसिकप्रिया सूचना-(१) प्रेम का रंग लाल होता है और रोष का भी रंग लाल होता है। (२) इस छंद के अनेक शंका-समाधान टीकाकारों ने किए हैं । अथ प्रोषितपतिका-लक्षण-( दोहा ) (२५६) जाको प्रीतम दै अवधि, गयो कौनहूँ काज । ताकों प्रोषितप्रेयसी, कहि बरनत कबिराज ।१६। प्रच्छन्न प्रोषितपतिका-यथा, (सवैया) (२५७) केसव कैसेहूँ पूरब पुन्य मिल्यो मनभावतो भाग भरयो री । जानै को माई कहा भयो क्यांहूँ जुऔधि को आधिक योस टरयोरी। ताकहुँ तू न अजौं हँसि बोले जऊ मेरो मोहन पाइ परयो । काठहु तें हठ तेरो कठोर इतें बिरहानलहूँ न जरयो री २०॥ शब्दार्थ-मनभावती = मनचहेता (नायक)। भाग भरयो = भाग्यवती हुई । माई = हे माई, पाश्चर्यबोधक । प्राधिक = आधा । द्योस =दिवस, दिन। टरयो री = टल गया, बीत गया। अजौं - अब भी। इतें - इतने तीव्र । भावार्थ- (सखी की उक्ति नायिका से) हे सखी, न जाने क्या कारण हुआ कि अवधि से केवल आधा दिन ही किसी प्रकार अधिक व्यतीत हो गया और श्रीकृष्ण प्रतिज्ञानुसार समय पर नहीं पहुँच सके । इतने थोड़े समय के विलंब के लिए तू अब भी उनसे हँसकर नहीं बोल रही है, यद्यपि वे तेरे पैरों पड़ रहे हैं । यह नहीं समझती कि न जाने किस पूर्वजन्म के पुण्य से प्रिय से भेंट हुई है, भाग्योदय का समय पाया है। इसलिए मेरी दृष्टि में निश्चय ही तेरा हठ काठ से भी कड़ा है । क्योंकि उनके वियोग की विरहाग्नि में भी वह न जल सका ( तो अब क्या प्राशा की जाय, अब भी तो तू अपना हठ नहीं छोड़ती )। प्रकाश प्रोषितपतिका, यथा-( सवैया ) (२५८) औधि दै आए उहाँ उनसों यह भोजन के अब ही हम ऐहैं साकहूँ तो अब लौ बहराइक रात्री बरथाइ मरू करि मैं हैं बैठे कहा इनके ढिग केसब जाउ नहीं कोउ जाइ जु कैहैं जानत हो उन आँ खिनि ते अँसुवा उमहे बहुरथो पुनि रहैं ।२१। शब्दार्थ-~-उनसौ = उस नायिका को । अब ही = अभी । ऐहैं = पाएंगे। अब लौंअब तक । बहराइकै = भुलावा दे करके । बरयाइ बलात् । मरू १६-प्रोषितपतिका-प्रोषित प्रेयसी । २०--. क्योंहूँ जु-कैसेहूँ, कान्ह को। प्राधिक-प्राधों कु । टरयो-ढरयो। बोलै०-बोलति मेरो ज्यों। हूँ न- दूनो । २१-पाए--प्रापु । उनसों--उनको । यह-यहाँ । बरचाह--स्ववाइ, बराइ । म.--बरू कहि । इनके-इनको । जाप-जाउ । उन-इन । उमहे--उमड्यो ।