सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसिकप्रिया चवर चलाव जिन बीजन हलाव मति, केसव सुगंध बाय बाय-सी लगति है। चंदन चढ़ाव जिन ताप सी चदति तन, कुकुम न लाव अंग आग सी लगति है। बार बार बरजत बावरी है वारौं श्रानि, बीरी न खवाव बीर बिष सी लगति है।४। शब्दार्थ-सूल फूलत = काँटे की तरह कसकते हैं, पीड़ा बढ़ती है । दूरि करि = हटा दे । बाल = बाला, स्त्री। ब्याल = सर्प । बालब्याल = सर्पिणी, नागिन । चँवर = मुर्छल । जिन = मत, नहीं। बीजन = ( सं० व्यजन ) पंखा । मति = मत, नहीं। सुगंध बाय = सुगंधित वायु, सुगंधित पदार्थों के संस्पर्श से सुगंधित होकर आनेवाली वायु । बाय = बाई ( व्याधि )। ताप = ज्वर । 'ताप' शब्द का स्त्रीलिंग में व्यवहार ज्वर अर्थ में होता है । कुंकुम = केसर । न लाउ = मत लगा। अंग = शरीर में । बावरी=पगली, मूर्ख। वारौं = बलिहार होती हूँ। पानि:पाकर । बीरी: -पान की गिलौरी । बीर = हे सखी । श्रीराधिकाजू को प्रकाश पूर्वानुराग, यथा--( सवैया ) (३८६) केसव कसहूँ ईठनि डीठि है डीठ परे रति-ईठ कन्हाई । ता दिन ते मन मेरे को आनि भई सु भई कहि क्योंहूँ न जाई । होइगी हाँसी जौ आवै कहूँ कहि, जानि हितू हित बूझन आई । कैसे मिलौं री, मिले बिनु क्यों रहौं, नैननि हेत, हियें डर माई ।। शब्दार्थ--कैसहूँ = किसी प्रकार से । ईठनि = यत्नों से डीठि । ह डीठ 'परै = दृष्टि द्वारा देखे गए, ध्यान देकर उनका रूप देखा। रति-ईठ -प्रेम के लिए इष्ट, प्रिय । कन्हाई = कृष्ण । प्रानि० = ( मेरे मन पर) जो आ पड़ी वह किसी प्रकार कही नहीं जा सकती। होइगी० = यदि कहीं कोई बात मुंह से निकल गई तो मेरा उपहास होगा। हितू = हितैषिणी। हित = पथ्य, अनुकूल कार्य अर्थात् उपाय । बूझन = पूछने के लिए। हेत-प्रेम । हियें= हृदय में । माई-हे सखी। श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न पूर्वानुराग, यथा-( सवैया ), (२८७) एक समै बृषभानसुता सजनी-गन में जननी-सँग बसी । जात उन्हें चितयो जिहिं रीति सुप्रीति हियें कहि जाइ न तैसी। ४.-फूलत- भूलति । माल बाल --माला बाला याला, मान व्याज बाल । मति- लागै । ताप-तार सों तवति । ५ - दीठि - ईठि ते । परे--परेव । कन्हाई-कहाई ! कहूँ -