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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१८८

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१६२ रसिकप्रिया श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न मध्यममान, यथा-( सवैया) (३५४) कहौ कान्ह कहाँ सिगरी निसि नासी सु तो तुमहीं कहँ चाहतहीं। तनु में तनु रेख लिखी किहि केसव कंटक कानन गाहतहीं । कछू राती सी आँ खि कहा भई ताती तिहारे बियोग के दाहवहीं । हिय-बंचक-रीति रची जब रंचक लाइ लई उर नाह तहीं ॥१६॥ शब्दार्थ-( नायक और नायिका के प्रश्नोत्तर ) ( नायिका-) हे कन्हैया, कहिए सारी रात कहाँ बिताई ? (नायक-) तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए तो। ( नायिका-) कहिए, आपके शरीर में यह पतलो ( नख की) रेखा कैसी है ? ( कृष्ण-) घूमते-फिरते वन में कांटों की खरोंच लग गई है ( नायिका-) अच्छा यह तो बताइए आपकी आँखें कुछ लाल क्यों हैं ? (नायक-) तुम्हारी वियोगाग्नि में जलने से गरम होकर ये लाल हो गई हैं। इस प्रकार कहने पर जब नायिका ने उनकी बातों पर अविश्वास व्यक्त करते हुए विचित्र मुद्रा से कुछ हृदय लुभाने का सा ढंग दिखाया, तब नायक ने उसे हृदय से लगा लिया । सूचना -अन्य स्त्री से बातें करते देख लेने से नायिका ने मान किया, इसलिए मध्य ममान है । नायक-नायिका तक ही बात है इससे प्रच्छन्न । चौथे चरण में मानमोचन हो जाने का आभास मिलता है इसलिए सरदार ने उसका अर्थ इस प्रकार किया है-(नायक) तुमने भी हृदय को धोखा देनेवाली रीति पकड़ी है । ( नायिका) आप केवल बात करके क्यों रह गए जरा वहीं पर उसे गले क्यों नहीं लगा लिया। श्रीराधिकाजू को प्रकाश मध्यममान, यथा-( सवैया) (३५५) सखि ज्यों उनको तू बकावति मोहूँ को आई बकावन ह मरई। अब याही तें तोसहुँ बात कछू कहिबे को हुती न कही परई । कहि केसव आपनी जाँघ उघारिक आपही लाजनि को मरई। इक तौ सब तें हरए हरि हैं अब होहुँ कहा हरि तें हरई ।१७॥ शब्दार्थ--गरई = हठीली, ढीठ। हरए = हलके, शरारती, नटखट, निर्लज्ज, दुष्ट । हरई = हलकी, निर्लज्ज । भावार्थ-( नायिका ने जिस स्त्री से नायक को बातचीत करते देखा है, वही मानमोचन के लिए आई है, नायिका उसी से कह रही है ) जिस १६-नासी-नारी, नाखी । तनु-नख । किहि कहि । तिहारे-कि तेरे । १७-सखि ज्यों-ज्यों। तू-त्यों । को-जू, सों। तोस?-तो सों है । परई- परई। के-ब। पापही-पापुन । अब.-अरु होहू ब होऊ कहा हरई ।