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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१९९

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दशम प्रभाव २०३ चाहिए । नहीं तो रस-हानि होगी, ऐसा वर्णन रसात्मक न माना जाएगा। श्रीकृष्ण की प्रगति प्रति हित तें यथा-( सवैया ) (३७८) नीरहिं तौ बिन मीन सरै, अरु मीन तौ नीरहिं के जिय जीजै । जा बिन और सुहाइ न केसव ताहि सुहाइ सु तौ सब कीजै । जा लगि मो पग लागत हे सु लगी पग अंक लगाइ न लीजै । हौं सिखऊँ अपने सपनेहूँ तो आवत लच्छि किवार न दीजै ।१६) शब्दार्थ-सरै काम चल जाता है । अरु और ( फिर भी)। नीरहिं के जिय जीजजल के भरोसे ही जीता हैं । लेच्छि-लक्ष्मी। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायक प्रति ) सुनिए, चाहे बिना मछली के जल का काम निकल पर मछली तो बिना जल के जी ही नहीं सकती ( आपका काम चाहे नायिका के बिना भी चल जाए पर उस बेचारी का काम तो आपके बिना चल ही नहीं सकता, वह जी नहीं सकती)। दूसरी वात यह कि जिसके बिना कोई बात अच्छी नहीं लगती, उस ( व्यक्ति ) को जो अच्छा लगे वह करना ही पड़ता है ( आपको पहले बिना नायिका के चैन नहीं पड़ता था अब उसके मन वाली क्यों नहीं करते ? )। पहले जिससे मिला देने के लिए आप मेरे पैरों पड़ा करते थे ( मुझसे बिनती करते थे ) वही आपके पैरों पर आज पड़ी है उसे गले क्यों नहीं लगा लेते ? भला कोई स्वप्न में भी प्राती लक्ष्मी के लिए किवाड़ लगाता है ? इससे मैं जो सिखा रही हूँ उसे मान लीजिए। अलंकार-दृष्टांत और लोकोक्ति । अथ उपेक्षा-लक्षण-(दोहा ) (३७६) मान-मुचावन बात तजि, कहिये और प्रसंग। छूटि जात जहँ मान सो, कहत उपेक्षा अंग ॥२०॥ धिकाजू की उपेक्षा, यथा- ( क बित्त) (३८०) चपला न चमकति चमक हथ्यारन की, बोलत न मोर बंदी सयन-समाज के जहाँ तहाँ गाजत न बाजत दमामे दोह, देत न दिखाई दिनमान लीने लाज के । चलि चलि चंदमुखी साँवरे सखा पै बेगि, सोषक जु केसौदास अरि-सुख-साज के । चढ़ि ढि पवन-तुरंगनि चाहत फिरत चंद जोधा तमराज के ।२६।' १६--अरु-बर । तौ-सो। हे-हो। २० -कहिये-कहिजे । जात-जोई। जहे-जिहि । सो-तह। २१-दोह-दोए । ज-जे । गगन घन,