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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२०८

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. २१२ रसिकप्रिया सागर बना दिया। तुम्हारा यौवन ही नदी का भीषण प्रवाह है, जिसमें पूर्वराग से युक्त होना ही जल है । इस नदी को पार करने के लिए मनोरथ का हा जहाज है, आतुरता ही आवर्त है। इसी प्रकार उसमें अनेक भय ( के कारण ) भरे हुए हैं । तर्क की ऊंची लहरें उठ रही हैं बड़े बड़े कष्ट ही दीर्घकाय जलजंतु हैं ( तेरे यौवन की इस नदी के जा मिलने से नायक अब शोक के समुद्र ही हो गए हैं )। सूचना-श्रीकृष्ण को शोक-समुद्र (करुणा-वरुणालप) कहने से करुणा- विरह और बहिरंग सखी की उक्ति होने से प्रकाश है । अलंकार-सांग रूपक । अथ प्रवासविरह-लक्षण- (दोहा) (३६६) केसव कौनहु काज तें, पिय परदेसहिं जाइ । तासों कहत प्रवास सब, कवि कोबिद समुझाइ |७| सूचना-इसके बाद हस्तलिखित प्रति और लीथोवाली प्रति में यह सवैया दिया गया है, जो मुद्रित प्रतियों में नहीं है- जानै कहा मेरी दीरघ साँस लै नैन नवाइ दुकाइ बिथाहू । माथौ न दूखिहै सूधे निहारौ पखारौ नहीं मुख जौ न अन्हाहू । ऐसें ही केसव क्यों रहै प्रान सु आपनी पीर सुनावहु काहू । काहे तें भोर को भोजनौ छाड़थो तो पानो न पीवौ जौ पान न खाहू ।। श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न प्रवासविरह, यथा-( सवैया ) (४००) तू करिहे कहि धौं कब गौनहि नंदकुमार तौ गौन कियोई। मोहि महा डर तो उर को न रहै लटि लै जिनि को धौं लियोई। ऐसी न बूझियै केसव तोहि विचारै जु बोच बिचार वियोई । तेरे ही जीय जियै जिनको जिय रेजिय ता बिन तूं बजियोई।८। शब्दार्थ-गौनहि = गमन । लटि = क्षीण होकर । बियो = दूसरा। भावार्थ-( नायिका की उक्ति प्राण से ) हे प्राण, नंदकुमार तो गए, अब तू कब गमन करेगा? मुझे तो बड़ा डर तेरे हृदय का है। कहीं वह दुर्बलता-क्षीणता का बहाना लेकर रह न जाय, प्रत्युत उसने यह बहाना ले ही लिया। तुझे वैसा नहीं करना चाहिए जैसा तू इस समय दूसरे प्रकार का विचार करके करने लगा है ( गमन न करके रहना चाहता है )। तेरे ही जी ८-कहि-कब । कब-कहि । मोहि-मोहि तो मोह । रह-रह्यो । ले जिनि को धौ-लाभ । ऐसी-ऐसो । बिचार-विचारयो ।