सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

त्रयोदश प्रभाव २४७ बीरा बन्यो मुख खात मनोहर, मोहिं सिँगार लग्यो सब फोको। भाल भली बिधि जो लौं गुपाल कियो उहिं बाल बनाइ न टीको ।१४। शब्दार्थ -पाग = पगड़ी । बनी = शोभित हुई। बागो = अंगरखा । पटुआ = दुपट्टा । पटुका = कमर में बाँधने का वस्त्र । सोंधो = सुगंध । बीरा = पान का बीड़ा । वह बालराधिका । भावार्थ-(आपकी पगड़ी भी बनी है, अंगरखा भी छजता है, गले का दुपट्टा भी ठीक बन गया, कमर में कसा हुआ पटका भला लगता है। ( चंदन का लेप अंगराग आदि ) चढ़ाते समय सुगंध की व्यवस्था भी ठीक बन गई, वक्षःस्थल पर मन को भानेवाला हार भी ठीक बन गया। पान का बीड़ा मुंह में खाते समय खूब छजा, पर तो तब तक ये सब शृंगार फीके लगते हैं जब तक उस नायिका ने आपके ललाट पर भली भांति रचकर टीका नहीं लगाया ( चलिए उससे टीका लगवा आइए ) । सूचना-हस्तलिखित प्रति में निम्नलिखित एक छंद और मिलता है- मुग्धा को मिलैबो-( सवैया ) ऊजरू है यह गाउँ भटू मुंह कान्ह को नाउँ जु लीजत पैहै। जानै को मारी तू कौनहि का करी को है रे छैल छबीली जौ तें है। बात सँभारि कहौ सुनिहै कोउ आगि लगावौं कोऊ जल दैहै। कान्ह ही मारी तो वारी है बावरी तू उनको कैसे मारि सकै है। राधा को झुकिबो-( कवित्त ) (४५६) फिरि फिरि फेरि फेरि फेरथो मैं हरी को मन, मन फेरें फिरी पुनि भाग की भली घरी। पल पल पाइनि परति हुतो जिनके सु, पारयो पीय तेरें पाइ पी के पाइ हौं परी । बडिनि की बेटिनि की बड़ीये बड़ाई मेटि, केसौदास बड़ेन में जो तूं हौं बड़ो करी । हौं तौ जानी मनाएँ तें मेरो गुन मानिहै, मैं ताहि क्यों मनाई तँ जु मोही सोमनी धरी ॥१५॥ १४-पटुग्रा-बटुआ। कटि राजत-कटरा कटि। चढ़ावत-मनोहर । भावतो-भावत । बोरा-बोरी। कियो-दियो । उहिं-वह । १५-परति०.-परिह तिय । बडिनि०--बड़ी बड़ो बधुन । बड़ेन:--बड़ेनहू में जो तू मैं । जानी-जान्यौ, जानो । मनाएं..-मन में तू। मैं-हौं । मनाई० - मनाइहौं जो मोहूँ। मनी- भली करी।