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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२६३

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अधरात, चर्तुदश प्रभाव २६७ कुलटा कुचीलगात अंधतम कहि न सकत बात अति अकुलात जू। छेडी में घुसौ कि घर ईंधन के धनस्याम, परघरनीनि पहँ जात न घिनात जू ॥३२॥ शब्दार्थ-ठाट- छाजन का ढाँचा। छगोड़ी = भौरी । घात=स्थिति । कलित युक्त । त्रिनबलित = तिनके से घिरा । बिगंध = दुर्गंध । तलप = तल्प, शय्या । तलपतल = शय्या पर । कुचील = गंदे वस्त्र वाला। गात = गात्र, शरीर । अंधत म = अंध कर देनेवाला, घोर अंधेरा । छेडी - संकरी गली । भावार्थ-( सखी की उक्ति नायक प्रति ) हे घनश्याम, ( आपको थोड़ी भी घिन नहीं है क्या ? ) जहाँ का ठाट टूटा है, घुनों से घुना हुआ है, जो स्थान धूएँ और धूल से सना हुआ है, जहाँ झींगुर, भौंरी, सांप और विच्छियों की स्थिति है, जो स्थान काँटों से भरा है, घासफूस से घिरा है, जहाँ दुर्गंधयुक्त जल भरा है. ऐसे स्थान की शय्या पर शयन करने के लिए आप लालायित होते हैं । जो कुलटा है, मैले-कुचैले वस्त्र शरीर में धारण करने- वाली है, उसके यहाँ भी घोर अंधकार में आधी रात के समय आप जाते हैं। मुझसे तो यह बात कही भी नहीं जा सकती है, अत्यंत अकुलाती हूँ। कहीं किसी तंग गली में घुस गए, कहीं ईंधन के घर में पैठे। आपको ऐसे स्थान में बसनेवाली और उस पर भी पराई स्त्रियों के यहाँ जाते घृणा नहीं पाती ? अथ अद्भुतरस-लक्षण-( दोहा ) (४६६) होइ अचंभो देखि सुनि, सो अद्भुतरस जानि । केसवदास बिलासनिधि, पीत बरन बपु भानि ॥३३॥ शब्दार्थ-बिलाम निधि = विलास का भांडार । बरन = वर्ण, रंग। बपु = शरीर । भानि == भनो, कहो। श्रीराधिकाजू को अद्भुतरस, यथा-( कबित्त ) (४६७) केसौदास बाल बैस दीपति तरुन तेरी, बानि लघु बरनत बुधि परमान की। कोमल अमल उर उरज कठोर, जाति, अबला पै बलबीर-बंधन-विधान की। ३२-ठाट-टाटि । घुने-घने । धूरि-धूम । सो जु०-सनि सने, सेन सने, सैनि सने, सौं तो सने। बीछिन की-बिच्छिन की, बीछोजन । जल-जुत । घुसौ-घुसे । पहँ--यहँ, पास। पर--घर । ३३–होइ-होहि । जानि-जान । भानि-बानि, मान । -