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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/५८

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रसिकप्रिया अत्यंत एकाग्र करके केशवदास ने विवेकपूर्वक अनेक रीतियों से रसिकों के लिए 'रसिकप्रिया' की रचना की। (१३) ज्यों बिनु दीठि न सोभिजै, लोचन लोल बिसाल । त्यों ही केसव सकल कबि, बिन बानी न रसाल ।१३। भावार्थ-जिस प्रकार दृष्टि के बिना बड़े और चंचल नेत्र भी शोभित नहीं होते उसी प्रकार रसिक कवि भी बिना वाणी के शोभा नहीं पाते । अलंकार -उपमा। (१४) तातें रुचि सों सोचि पचि कोजै सरस कबित्त । केसव स्याम सुजान को, सुनत होइ बस चित्त ॥१४॥ भावार्थ -इसलिए रुचि से सोच विचार कर सरस श्रीकृष्णविषयक कविता करनी चाहिए. जिसे सुनकर सबका चित्त वशीभूत हो जाय । अथ नवरसवर्णन-(दोहा) (१५) प्रथम सिँगार सुहास्य रस, करुना रुद्र सु बीर । भय बीभत्स बखानिये, अद्भुत सांत सुधीर ।।१।। (१६) नवहू रस के भाव बहु, तिनके भिन्न विचार । सबको केसवदास हरि, नायक है सृगार ॥१६॥ अथ शृंगारसलक्षण-( दोहा ) (१७) रति-मति की अति चातुरो, रतिपति-मंत्र विचार । ताही सों सब कहत हैं, कबि कोविद शृंगार ॥१७॥ शब्दार्थ-रति = प्रीति । रतिपति =कामदेव । कोबिद = पंडित । भावार्थ-जहाँ रति (प्रीति) संयुक्त बुद्धि की अत्यंत चतुरता और काम (कला)के विचार का वर्णन रहता है उसे कवि और पंडित लोग शृंगार कहते हैं। अथ शृगार के भेद -( दोहा) (१८) सुभ संजोग वियोग पुनि द्वै सिंगार की जाति । पुनि प्रच्छन्न प्रकाश करि, दोऊ द्वै द्वे भौति ॥१८॥ अथ प्रच्छन्न-संयोग-शृंगार-लक्षण-(दोहा) (१६) सो प्रच्छन्न संजोग अरु, कहैं बियोग प्रमान । जानें पीउ प्रिया कि सखि, होइ जु तिनहिं समान ॥१६॥ भावार्थ -प्रच्छन्न संयोग और वियोग शृगार वह है जिसे नायक-नायिका या उन्हीं के समान सखी ही जानें । १३-सोभिजै-सोभिये। १४- झे-सुवि। १८- सिंगार-दोउ १६ -- प्रिया-पिया। होइ होहिं । सिंगार।