सबके नगड़दादा थे केशवदास, जिनका लोहा सभी मानते थे, जिनकी रचना का अध्ययन निरंतर होता रहा । उस भूभाग के कवियों की विशेषता रही है कि वे सब प्रकार का काव्य- चमत्कार दिखा सकने की शक्ति रखते थे। केशव के पूर्व जिस प्रकार का प्रवाह था सबका नमूना उन्होंने प्रस्तुत कर दिया है । उन्होंने रामचंद्रचंद्रिका के अतिरिक्त प्रशस्तिकाव्य भी कई लिखे हैं-वीरचरित्र, रतनबावनी और जहाँ- गीरजसचंद्रिका । संस्कृत के प्रबोधचंद्रोदय का पद्यबद्ध भाषानुवाद 'विज्ञानगीता' के रूप में है, जिसमें अपनी ओर से भी बहुत सी सामग्री पौराणिक वृत्ति वाले पंडित कवि ने जोड़ रखी है। इस भूभाग का कवि बहुश्रुत होता था। अनेक काव्यों और शास्त्रों का पहले अध्ययन करना, फिर उस निपुणता से अपने काव्य का उपबृहण । प्राचीन काव्य और शास्त्र संस्कृत के भी पढ़े जाते थे और फल- स्वरूप उनसे प्रभावित होना स्वाभाविक था। संस्कृत का आग्रह इनमें होता ही था । शौरसेनी की प्रकृति भी तो संस्कृत ही मानी जाती है। इसलिए संस्कृत के शब्दों और प्रयोगो का ग्रहण इनमें सहज था । केशव 'देवता' को स्त्रीलिंग ही लिखते रहे, देह को पुंलिंग । संस्कृत के उन शब्दों का भी प्रयोग 'भाखा' में करते रहे जो भाखावालों के लिए दुरूह हैं। यह व्रजी की प्रवृत्ति थी, केशव की-जिनके कुल के दास 'भाखा' बोलना नहीं जानते थे- व्यक्तिगत प्रवृत्ति मात्र नहीं थी। इस भूभाग में सांप्रदायिक प्राग्रह नहीं रहा, साहित्य ही उन्हें सांप्रदायिकता से नहीं पृथक् करता रहा, उनमें ऐसी उदारता, हृदय की विशालता जन्मभूमि साहित्यभूमि भी लाती रही। रीति का आग्रह करनेवाले भी यहाँ थे, उससे स्वच्छंद रहनेवाले भी यहाँ थे। केशव निबार्क-संप्रदाय में दीक्षित थे। उन्होंने रसिकप्रिया में प्रियाजू की प्रशस्ति लिखी। पर रामचंद्रचंद्रिका भी लिखी। कर्तृत्व केशवदास ने लक्षण-ग्रंथ ही नहीं, लक्ष्य-ग्रंथ भी लिखे हैं। श्रृंगार की ही नहीं, अन्य रसों की भी रचनाएँ की हैं। मुक्तक ही नहीं, प्रबंध भी प्रणीत किए हैं। इनके ग्रंथ ये हैं-रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, शिखनख, बारहमासा, छंदमाला, रामचंद्रचंद्रिका, रतनबावनी, वीरचरित्र, जहाँगीरजस- चंद्रिका और विज्ञानगीता। वीरचरित्र और रतनबावनी में वीररसपूर्ण रचनाएँ हैं। वीरचरित्र या वीरसिंहदेवचरित्र प्रबंधकाव्य है, किंतु प्रबंध के गुण पूर्ण मात्रा में इसमें नहीं पाए जाते। जहाँगीरंजसचंद्रिका प्रशस्तिकाव्य है। इनके प्रसिद्ध महाकाव्य रामचंद्रचंद्रिका में भी प्रबंधत्व परिपूर्ण नहीं ।