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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/६०

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६० रसिकप्रिया (२२) प्रकाश संयोग यथा-( सवैया ) केसव एक समै हरि-राधिका आसन एक लसैं रंगभीनें । आनँद सों लिए-आदर की दुति देखत दर्पन में दृग दीनें । भाल के लाल में बाल बिलोकि तहीं भरि लाल न लोचन लीनें। सासन पीय सबासन सीय हुतासन में मनो आसन कीनें ।२२। शब्दार्थ-रंगभीने - प्रेम से युक्त । लाल-माणिक । बाल = (बाला) नायिका (राधिका) । लालन - नायक (श्रीकृष्ण) । गामन याज्ञा । पीय= प्रिय रामचंद्र)। सवासन - वस्त्रों सहित (कपड़े पहने हुए)। हुतासन = अग्नि । भावार्थ - (बहिरंग सखी की उक्ति बहिरंग सखी से हे सखी, एक बार श्रीकृष्ण और राधिका प्रेमपूर्वक एक ही प्रासन पर विराजमान थे और श्रीकृष्ण दर्पण में प्रानंदसहित राधिका के मृख की छवि टकटकी लगाकर देख रहे थे। ( दर्पण में राधिका का प्रतिबिंब पड़ रहा था। उस प्रतिबिंब में राधिका के भाल की लाल टिकुली में उनका-राधिका का-पुनः प्रतिबिंब पड़ रहा था।) उस भाल पर की बेंदी के माणिक में पड़नेवाले राधिका के प्रतिबिंब को देखकर तुरंत श्रीकृष्ण ने अपने नेत्रों में आँसू भर लिए । ( श्रीकृष्ण को अपने रामावतार के उस समय की सुध पा गई जब पति की आज्ञा से सीता ने अग्निप्रवेश किया था । ) मानो अपने पति रामचंद्र की आज्ञा से सीता ने (अग्निपरीक्षा के लिए ) सवस्त्र अग्नि में प्रवेश किया हो । अलंकार :-स्मरण और उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा का अंगांगिभाव संकर । (२३) अथ श्रीरविका को प्रछन्न-भियोग शृंगार, यथा ( सवैया ) कोट ज्यों काटत काननि कान्ह सों मानहूँ में कहि आवत ऊनो। ताहि चलें सुनि के चुर है रहे नीकहिं केसव एक न दूनो । नेक अट पट फूटति आँखि सु देखति हैं कब को ब्रज सूनो । काहे कों काहू को कीजे परेखो'ब जीजै री जीव की नाक दै चूनो ।२३। शब्दार्थ-कहि श्रावत = कहा जाता था, कहते थे। ऊनो - बुग नीति = भली भांति ! नेक थोड़ा, थोड़ी देर के लिए। अटें पट = परदा पड़ जाने प, धूघट पड़ जाने पर । परेखो परीक्षा । नाक चनो दै जीजै = नाक में चूना लगातार जीती हैं, बदनामी महती हुई बेहयाई के साथ जी रही हैं । भावार्थ-(नायिका का वचन सखी से) श्रीकृष्ण पहले मान में भी बुरी बात ( बाहर चले जाने की बात ) कहते थे तो वह जिन कानों को कीड़े के २२-दर्पन में-दर्पन त्यों : बिलोकि०-बिलोकति हो । मनो-जनु । २३-काटत-काट त्यों । कान्ह-कान । मानहूँ-मानहि । नोकहि-नोके ही। एक-एकहि । पट-पर। जीजै-जीजिए, जीय के ।