सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसिकप्रिया at सब --चाल। इनकी शरारत के लिए कहाँ तक इनकार किया जा सकता है ये प्रकार से छंटे हुए उपद्रवी हैं। अलंकार-लोकोक्ति ( चतुर्थ चरण में)। अथ प्रकाश धृष्ट-लक्षण-( दोहा ) (४४) मनसा बाचा कर्मना, बिहँसनि चितवनि लेखि । चलनि चातुरी आतुरी, आठौ गाँठ बिसेषि ।१६॥ शब्दार्थ-लेखि = लेखो, ममझो । चलनि अथ प्रकाश, धृष्ट यथा-( सवैया) (४५) सौंह को सोचु सकोचु न पाँच को डोलत साहु भए करि चोरी। बैननि बंचकताई रची रति नैनन के सँग डोलत डोरी। लाज करै न डरै हित-हानि तें आनि अरे जिय जानिकै भोरी। नाहिने केसव साख जिन्हें बकिकै तिनसों दुखवै मुख को री १७/ शब्दार्थ- सौंह = मौगंध । पाँच = पंच । साहु = (साधु) सच्चे, ईमान- दार । बैन = (वचन) वाणी । वंचकताई = धूर्तता । रति = प्रीति, अनुराग । डोरी= डोरियाई हुई, संग लगी हुई। आनि आकर । अरे = अड़ गए। जिय जानि के भोरी = यह जानकर कि भोली भाली हूँ ( मूर्ख हूँ)। साख = प्रमाण, एतबार । बकिकै = बकवाद करके । दुखवै- पीड़ित करे, कष्ट दे। भावार्थ-( नायिका की उक्ति बहिरंग सखी से ) हे सखी, श्रीकृष्ण को न तो सौगंध की ही परवा है और न पंच का ही कोई संकोच है। वे चोरी करके भी साह बने फिरते हैं (दूसरी स्त्री के साथ प्रेम करके भी अपने को निर्दोष बतलाते हैं )। उनकी बातों में धूर्तता भरी है और अनुराग नेत्रों के साथ डोलता है (उनके नेत्रों में दूसरी स्त्रियों की प्रीति समाई हुई है) उन्हें न तो लज्जा ही आती है न वे अपने हित की हानि से ही डरते हैं । वे मुझे भोली भाली समझकर यहाँ पर आ डटे हैं। जिनकी बातों का कोई एतबार नहीं उनके साथ बकवाद करके अपने मुख को कौन पीड़ा दे ( उनसे बात भी नहीं करना चाहती )। अलंकार-विशेषोक्ति ( प्रथम चरण में ) । ( दोहा ) (४६) बरने कवि-नायक सबै, नायक इहि अनुसार । सब-गुन-लायक नायिका, सुनि अब बहुत प्रकार (१८' इति श्रीमन्महाराज कुमार इंद्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां चतुर्विधनायकपच्छन्नप्रकाश वर्णनं समद्वितीयः प्रभावः ।२। १७-डोलति-डोरति । जानिक-जानि कि । के तिन-ऐसेनि । १८-बरने-बरनेह।