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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/७७

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रसिकप्रिया छल के निवास ऐसे बचन - विलास सुनि, चौगुनो सुरतिहूँ तँ स्याम सुख पायौ जू ।२३। शब्दार्थ-हाथ = हाथ से । सारिकाहू = सारिका (मैना) भी । द्युति- ज्योति, प्रकाश । दुराइ आऊँ = बंद कर दूं। दिखायौ = दिखाई पड़ता हुआ, खुला हुमा । मृगज = मृग के छौने । मराल-बाल = हंस के बच्चे ( जो पाले गए हैं ) । बाहिरै बिडारि देहुँ - बाहर निकाल दूं। छल के निवास = कपट- क्रीड़ा में कुशल (श्याम का विशेषण)। बिलास = क्रीड़ा । सुरतिहूँ = रतिजन्य मानंद से भी। भावार्थ-( नायिका की उक्ति नायक से) हे नाथ, उतावली मत कीजिए । हाथ से आंचल मत खींचिए । तोते को तो सुला दिया, अब जरा सारिका को भी सो जाने दें। दीपक बुझा दीजिए। चंद्र का मुख ( बिंब ) दिखाई पड़ रहा है। जरा दौड़कर खुले हुए दरवाजे को तो बंद कर आऊँ। हिरण तथा हंस के बच्चों को ( कमरे से ) बाहर कर पाऊँ । जो कामक्रीड़ा आप चाहते हैं वही मेरे मन को भी भाती है (मैं भी वही चाहती हूँ )। कपट-क्रीड़ा में कुशल श्रीकृष्ण ने जब ये आनंददायक वचन सुने तो उन्हें रतिजन्य आनंद से भी अधिक आनंद मिला। अलंकार-द्वितीय प्रहर्षण । सूचना-(१) यहाँ नायिका का त्रास वर्णित है । वह सन्नाटा और एकांत चाहती है ।। मुग्धात्व प्रमाणित करने के लिए सूरति मिश्र ने ये वचन शुक- सारिका के माने हैं। ( २ ) इस छंद के आगे लीथोवाली प्रति में एक कवित्त और दिया गया है। यही खंडित प्रति में 'नवयौवनभूपिता' के बढ़े उदाहरण में पाया जाता है- ( कबित्त) मुकतामनीन की है मुकतिपुरी सी नाक, दारथों दंत दाननि कों हँसति बतीसी है। मोहन के मंत्रनि के अखरानि की सी रेख, भृकुटी सुबेष भाव-भेद छबि-छी सी है। चित्त-चतुराई उझकी सी उझके से उर, कुच सकुचौ तो नयननि उझकी सी है। केसौदास रूप की सी साला प्रेम की सी माला, भाजु लौं न देखी सुनी आजु दीसी है। २३-ऐचो बैंचो । सारिका हू-सारिकाऊ । दौरिके-दौतिके । त्यों-ता। चौगुमो-सौगुनो। अन्यच्च-