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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/८८

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तृतीय प्रभाव काम की आकाश की ही भांति आपका शब्द और स्थिति घटघट में और घरघर में भली भांति व्याप्त है । (आकाश के ही कारण शब्द होता है और प्रत्येक घट एवम् घर-मठ में उसकी व्याप्ति है—घटाकाश और मठाकाश रूप में । आपकी बदनामी, गांव में घटघट (सबके हृदय में) और घरघर व्याप्त है ) पत्नी की भांति आपका प्रेम है ( प्रिय के त्याग पर उसे रोना था आप भी उस प्रिया के त्याग से दुखी हैं )। हे नाथ आपका रूप कामदेव की तरह है ( कामदेव अरूप है। आप भी अरूप-बेढंगा रूप-धारण किए हुए हैं)। आप ही बतलाइए कि मेरी इन बातों में आपको कौन सी बात झूठ जान पड़ती है ? ( मैं ठीक ही कह रही हूँ न ! )। अलंकार-उपमाश्रित उल्लेख । अथ मध्या धीराधीरा, यथा (सवैया) (६५) कान्ह भले जु भले समुझाइहौं मोहसमुद्र कि ज्यों उमह्यो हो। केसव आपनो मानिक सो मन हाथ पराए दै कोने लह्यो हो। नैननिहीं मिलिबो करियै अब बैननि को मिलिबो तो रह्यो हो। जाइ कह्यो तुम जैसे सखीनि सों एहो गुपाल मैं ऐसो कह्यो हो ।४६। शब्दार्थ-उमह्यो हो = उमड़ा था । रह्यो हो = समाप्त हो गया । भावार्थ-(नायिका की उक्ति नायक से) हे कान्ह, मैं आपको भली भांति समझाऊँगी कि मोहरूपी समुद्र का उमड़ना कैसा हुआ था। क्या किसी ने माणिक सा अपना मन दूसरे के हाथ देकर (वापस) पाया हैं ? अब तो नेत्रों का मिलन रह गया ( कभी कभी दर्शन भर कर लूंगी ) वचनों का मिलन तो समाप्त हो गया ( अापसे बात न करना ही ठीक है )। मापने जाकर सखियों से जैसा ( उलटा सीधा ) कहा है, क्या गोपाल, मैंने ऐसा ही कहा था ? (आप इधर उधर की बातें बहुत किया करते हैं ) । अथ प्रौढ़ा-भेद चतुर्विध-(दोहा) (१६) सुनि समस्तरस कोबिदा, चित्तविभ्रमा जाति । अति आक्रामित नाइका, लब्धायति सुभ भाँति ।५०। शब्दार्थ-मुनि = सुनो । जाति = भेद । अथ समस्त रसकोविदा-लक्षण-(दोहा) (६७) सो समस्तरसकोबिदा, कोबिद कहत बखानि । जो रस भावै प्रीतमहि, ताहो रस की दानि ५११ शब्दार्थ-कोबिदा पंडित । रस = आनंद । ४-कि-को, की। उमटो-उमड्यो, उमहो। हो-है। अब-सब । जैसे-जैसों, ऐसो । ५०-चित्र-चित बिभ्रम या जाति, अनामितपति आन । लब्धायति०-लुब्धापति०, लब्धापतिहु बखान । ५१-दानि-खानि ।