पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१४६

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विभाव ऋतु पावस बरसे पिउ पावा; सावन-भादौं अधिक सुहावा। पदमावति चाहति ऋतु पाई । गगन सुहावन, भूमि सुहाई । कोकिल बैन, पाँति बग छूटी ; घन निसरी जनु बीरबहूटी । चमक बीज, वरसैं जल सोना; दादुर-मोर-सबद् सुठि लोना । रँग राती पिय-सँग निसि जागी ; गरजे गगन, चाँकि गर लागी । सीतल बूंद, ऊँच चौपारा । इरियर सुच दीखै संसार । हरियर भूमि, कुसुंभी चोला ; औ धन पियसँग रचा हिंडोला । संयोग श्रृंगार की दृष्टि से यह वर्णन बड़ा मनोहर है। पर इसमें कवि का अपना सूक्ष्म निरीक्षण ‘बरसै जल सोना' में ही दिखाई पड़ता है। और सब वर्णन परंपरानुसारी ही है। अब विप्रलंभ श्रृंगार के अंतर्गत आषाढ़ का वर्णन लीजिए चढ़ा असाढ़, गगन धन गाजा ; सजा बिरह दुद् दल बना। धूम स्याम धौरी घन घाए; सेत धुना बग-पाँति दिखाए । खरग-बीजु चमके चहुँ शोरा ; बुंद-बान बरसहि घन घोरा ।। उनई घटा आइ चहुँ फेरी ; कंत ! उबार मदन हौं घेरी । दादुर, मोर, कोकिला पीऊ ; गिरहिं बीज, घट रहे न जीऊ। पुष्य-नखत सिर ऊपर वा ; हैं बिनुनाइ,मँदिर को छावा । पाठक देख सकते हैं कि फुटकर कहने या गाने के लिये ये पद्य कितने सुंदर हैं। पर एक प्रबंध-काव्य के भीतर दृश्य-चित्रण की दृष्टि से यदि इन्हें देखते हैं तो संतोष नहीं होता । अन्य के संबंध में स्थित किसी भाव के उद्दीपन-मात्र के लिये जितना वस्तु-विन्यास अपेक्षित था उतना जायसी ने किया, इसमें कोई संदेह नहीं। ‘उद्दीपन'-रूप में दृश्य जो प्रभाव उत्पन्न करता है। वह दूसरे के --अर्थात् 'आलंबन के संबंध से, स्वतंत्र रूप में नहीं। पर, जैसा कि सिद्ध किया जा चुका है, प्राकृतिक दृश्य


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