ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] १०० [ 'हरिऔध' देव पूजा ठानी, मैं निवाज हूँ भुलानी, .. तजे कलमा कुरान, साड़े गुनन गहूँगी में । साँवला सलोना सिर ताज सिर कुल्ले दिये, तेरे नेह दाग में निगाद हो दहूँगी मैं । नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पै, तांड नाल प्यारे हिन्दुआनी हो रहूँगो मैं । मेरी इन बातों से आप लोग यह न समझे कि मैं खड़ी बोली की कविता में ब्रजभाषा शब्दों के अबाध व्यवहार का पक्ष-पाती हूँ। नहीं, यह मेरा विचार कदापि नहीं है। ऐसी अवस्था में खड़ी बोली की कविता की उपयोगिता ही क्या रह जायगी ? वह तो पहचानी भी न जा सकेगी। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि ब्रजभाषा के उपयुक्त और सुन्दर शब्द यदि कहीं प्रयुक्त होकर कविता को कवित्वमय कर देते हैं तो उसका ग्रहण कर लेना भावुकता है। कवि सौंदर्य का उपासक, भाव का भूखा, रस का रसिक, प्रसाद का प्रेमिक और सरलता का सेवक है । अतएव इनके साधनों को साध्य बनाना ही उसका धर्म है-अन्यथा, कवि-कर्म कवि-कर्म नहीं रह जायेगा। मुख्यतः क्रिया ही खड़ी बोली को ब्रजभाषा से पृथक् करती है। अतएव ब्रजभाषा क्रिया का प्रयोग खड़ी बोली में कदापि न होना चाहिये । किसी उपयुक्त अवसर पर, संकीर्ण स्थल पर अनुप्रास के लिए यदि ब्रजभाषा-क्रिया का प्रयोग संगत जान पड़े तो मेरा विचार है कि वहाँ उसका प्रयोग हो सकता है। किन्तु उसी अवस्था में जब उसे खड़ी बोली की क्रिया का रूप दे दिया जाय । उस शब्द-योजना और वाक्य-विन्यास को जो कि ब्रजभाषा-प्रणाली से प्रस्तुत है, खड़ी बोली में ग्रहण करना उचित नहीं; क्योंकि इससे खड़ी बोली ब्रजभाषा का प्रतिरूप बन जायेगी। हिन्दी भाषा की दो मूर्तियाँ हैं-एक खड़ी बोली और दूसरी 'ब्रजभाषा' ।