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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३७

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1 १०५८ रामचरित मानस । ची-नानाभाँति मनाहि समुझावा ।. प्रगट न ज्ञान हृदय भ्रम छावा ॥ खेदखिन मन तर्क बढ़ाई । भयउ मोह बस तुम्हरिहि नाँई ॥१॥ अनेक प्रकार से मन को समझाया, परन्तु शान नहीं प्रकट हुआ हृदय में भ्रम छा गया। खेह से दुखी हो कर मन में तर्क बढ़ाया, तुम्हारी ही तरह प्रशान वश हुए ॥ १॥ व्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं.॥ सुनि नारदहि लागि अति दाया । सुनु खग प्रबल राम के माया ।।२।। व्याकुल हो कर नारदजी के पास गये और जो अपने मन में सन्देह था उसको कहा। सुन कर नारदमी को बड़ी दया लगी, उन्हों ने कहा-हे पहिराज ! सुनिये, रामचन्द्रजी की माया बड़ी जोरावर है ॥२॥ जो ज्ञानिन्ह कह चित अपहरई । बरिआई बिमाह मन करई ।। जेहि बहु बार नचावा माही । सोइ व्यापी बिहङ्गपति ताही ॥३॥ जो ज्ञानियों के चित्त को हर लेती है और जोरावरी से उनके मन में अज्ञान उत्पन्न कर देती है । जिसने मुझ को बहुत बार नचाया है, हे पक्षिराज ! वही माया तुम्हें व्यापी है ॥ ३॥ महामाह उपजा उर तारे । मिटिहि न बेगि कहे खग मारे । चतुरानन पहिं जाहु खगेसा । सोइ करेहु जो हाई निदेसा ॥४॥ हे गरुड़ ! तुम्हारे हृदय में महा मोह उत्पन्न हुआ है, मेरे कहने से वह जल्दी न मिटेगा। हे पक्षिराज ! तुम ब्रह्माजी के पास जानो और जो उनकी प्राशा हो वही करना (तब तुम्हारा सन्देह दूर होगा) ॥४॥ दो अस कहि चले देवरिषि, करत राम गुन गान । हरिमाया बल बरनत, पुनि पुनि परम सुजान neu ऐला कह कर रामचन्द्रजी का गुण गान करते हुए नारदजी चले । परम चतुर देवर्षि मन में बार बार भगवान की माया का बल वर्णन करते जाते हैं 198॥ चौ०-तबखगपति घिरजि पहिंगयऊ। निज सन्देह सुनावत भयऊ । सुनि विरचि रामहि सिर नावा। समुझि प्रताप प्रेम उर छावा ॥१॥ तब पक्षिराज विधाता के पास गये और अपना सन्देह कह सुनाया। सुन कर ब्रह्माजी . ने रामचन्द्रजी को मस्तक नवाया और प्रभु के प्रताप को समझ कर उनके हृदय में प्रेम छा मन महं करइ बिचार बिधाता । माया बस कबि कोबिद ज्ञाता ॥ हरिमाया कर अमित प्रभावा । बिपुल बार जेहि माहि नचावा ॥२॥ ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि माया के, वश में कवि विद्वान और शानी सभी हैं। गया॥१॥ T