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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१९२

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न्यूनता न पाये। प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दो०-सम्भु दीन्ह उपदेस हित, नहिं नारदहि सोहोन । भरद्वाज कौतुक सुनहु, हरि-इच्छा बलवान ॥१२॥ शिवजी ने भले के लिए उपदेश दिया, पर वह नारदजी को नहीं अच्छा लगा। याज्ञवल्क्यमुनि कहते हैं-हे भरद्वाजजी ! हरिइच्छा (भावी ) बलवता है, उसका तमाशा सुनिए ॥१२७॥ शिवजी का सदुपदेश भावी की प्रेरणा से नारद को उलटा प्रतीत हुआ कि इन्होंने काम को जीता है । अब मेरी जीत को डाह से छिपाने के लिए कहते हैं, जिससे इनकी नामवरी में चौ०–राम कीन्ह चाहहिं सांइ होई । करइ अन्यथा अस नहि कोई सम्भु बचन मुनि मन नहिँ भाये । तब बिरञ्जि के लोक सिधाये ॥१॥ रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं वही होता है, ऐसा कोई नहीं है जो उस के विपरीत कर सके। शिवजी के वचन मुनि के मन में अच्छे नहीं लगे, तब वे ब्रह्मा के लोक को चले गये ॥१॥ एक बार करतल बर-बीनो । गावत हरि-गुन गान-प्रबीना ॥ छीरसिन्धु गवने मुनिनाथा । जहँ बस श्रीनिवास खुतिमाथा ॥२॥ गाने में चतुर मुनीश्वर एक बार हाथ में सुन्दर वीणा लिए भगवान का गुण गाते हुए क्षीरसागर को चले, जहाँ वेदों के पूज्य लक्ष्मीनिवास रहते हैं ॥२॥ हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता ॥ बोले बिहँसि चराचर-राया । बहुते दिनन्ह कीन्हि मुनि दाया ॥३॥ लक्ष्मीकान्त प्रसन्नता से उठ कर मिले और मुनि के सहित आसन पर बैठे। चरावर नाथ हँस कर बोले-हे मुनि ! बहुत दिनों पर दया की (अब तक कहाँ रहे ? ) ॥३॥ कोम-चरित नारद सब भाखे । जद्यपि प्रथम बरजि सिव राखे । अति प्रचंड रघुपति कै माया । जेहि न मोह अस को जग जाया ॥४॥ यद्यपि पहले शिवजी ने मना कर रखा था, तो भी नारद ने कामदेव का सब चरित कहा। रघुनाथजी की माया बड़ी प्रबल है, ऐसा कौन संसार में उत्पन्न हुआ है जिसको उसने मोहित न किया हो ॥ दो-रूख बदन करि बचन मृदु, बोले श्रीभगवान । तुम्हरे सुमिरन तें मिटहि, मोह मार मद मान ॥१२८॥ श्रीभगवान् रुखा मुँह कर के कोमल बचन बोले । श्राप के स्मरण से मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं ॥ १२ ॥ । .