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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३१७

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२६० रामचरित मानसं । चौ०-काम कुसुम-धनु-सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे । रानी देबि तजिय संसय अस जानी। भउजब धनुप राम सुनु ॥१॥ कामदेव ने फूल का धनुष-बाण लेकर समस्त भुवन को अपने वश में कर लिया है। हे देवि! ऐसा समझ कर सन्देह त्याग दीजिए, रानीजी ! सुनिए, रामचन्द्र धनुष तोड़ेंगे ॥१॥ सखी बचन सुनि भइ परतीती । मिटो बिषाद बढ़ी अति प्रीती॥ तष रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदय बिनवति जेहि तेही ॥२॥ सखी की बात सुन कर विश्वास हुआ, विषाद मिट गया और अत्यन्त प्रीति बढ़ी । तब रामचन्द्रजी को देख कर जानकीजी इदय में भयभीत होकर जिस किसी से विनती करती हैं ॥२॥ मनहीं भन भनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥ करहु सुफल आपनि सेवकाई । करि हित हरहु चाप गरुआई ॥३॥ धवरा कर मन ही मन मनाती हैं-हे मद्देश-भवानी ! मुझ पर प्रसन्न हो। अपनी सेवकाई सफल कर के धनुष की गरमाई हर कर मेरा कल्याण कीजिए ॥३॥ गन-नायक बर-दायक देवा । आजु लगे कोन्हिउँ तव बार बार बिनती सुनि मारी। करहु चाप-गरुता अति थोरी ॥४॥ हे गणों के स्वामी, वर देनेवाले देवता ! आज तक मैं ने आप की सेवा की है। मेरी, बारम्बार प्रार्थना है उसको सुन कर धनुष का गन्नापन बिल्कुल थोड़ा कर दीजिए ॥४॥ दो-देखि देखि रघुबीर छबि, सुर मानव धरि धीर । भरे बिलोचन प्रेम-जल, पुलकावली-सरीर ॥२५॥ रघुनाथजी की छवि देख देख कर धीरज धारण कर के देवताओं को मनाती हैं । आँखों में प्रेम के आँसू भरे हैं और शरीर रोमाञ्चित हो गया है ॥ २५७ ॥ प्रेमदशा में अश्रु और रोमाञ्च सात्विक अनुभाव प्रकट हुए हैं। चौ०--नीके निरखि नयनभरि सोभा । पितु-पनसुमिरि बहुरि मन छोभा। अहह तात दोरुन हरु ठानी । समुझत नहिँ कछु लाभ न हानी ॥१॥ अच्छी तरह से आँख भर शोभा देख कर पिता की प्रतिज्ञा स्मरण कर के फिर मन बैचैन हो उठा । पछताने लगी कि खेद है, हे तात ! आपने भीषण हठ ठाना, न तो कुछ लाभ समझते हो न हानि ॥१॥ सीताजी के मन को एक ओर रामचन्द्रजी की छवि निरीक्षण से हर्ष और दूसरी ओर पिता की भीपण प्रतिज्ञा की स्मृति और विषाद अपनी अपनी ओर खींच रहे हैं। दोनों भावों की सन्धि है। सेवा ॥