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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४३७

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३५ शमचारस-मानसं । हो । कर्म के अधीन हो कर जीव सुख और दुःख को भोगता है, इसलिए देवताओं के कल्याण के हेतु अयोध्या को जाइये ॥२॥ बार बार गहि चरन सकोची । चली बिचारि विबुध-मति-पाची । ऊँच निवास नीचि करतूती । देखि न सकहिँ पराइ बिभूती ॥३॥ बार बार देवताओं ने पाँव पकड़ कर संकोच में डाला, तब देवताओं की बुद्धि को बोटी अनुमान कर चली । सरस्वती देवि मन में विचारती जाती है कि देवताओं का निवास ऊँचा (स्वर्ग का) है परन्तु इनकी करनी छोटी है, ये पराये का ऐश्वर्या नहीं देख सकते ॥३॥ आगिल काज बिचारि बहोरी । करिहहिँ चाह कुसल-कबि मारी। हरषि हृदय दसरथ-पुर आई । जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई ॥४॥ फिर आगे के काम का विचार कर ( कि पृथ्वी, देवता, मुनि, ब्राह्मण, गौ आदि का सइट दूर होगा, इससे ) चतुर कवि मेधादर करेंगे ! प्रसन्न मन से दसरथजी के पुर में आई, ऐसी मालूम होती है मानो असहनीय दुःख देनेवाली प्रहदशा हो ॥४॥ दो नाम मन्थरा मन्द-मति, चेरी कैकइ केरि । अजस पेटारी ताहि करि, गई गिरा मति फेरि ॥ १२ ॥ केकयी की नींव बुद्धिवाली दहलुनी जिसका नाम मन्धरा है, उसको अपकीर्ति की पेटारी (मोनी) बना कर सरस्वती उसकी बुखि बदल कर चली गई ॥१२॥ वा इष्ट तो है कारण का कथन कि रामराज्य विध्वंस करने लिए वीज बो दिवा, पर उसे सीधे शब्दों में न कह कर मन्थरा को मन्दमति फेरी हुई बुद्धि की कहना, जिस से कार्य जनाया जाय, 'अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार' है। चौ० दीख मन्थरा नगर बनावा । मज्जुल मङ्गल बाज बधावा ॥ पूछेसि लेगन्ह कोह उछाहू । राम-तिलक सुनि भा उर दाहू ॥१॥ मन्धरा ने नगर के सजावट को देखा, सुन्दर माजलीक वधावा बज रहा है। लेगों से पूछो कौन सा उत्सव है ? रामचन्द्रजी का राजतिलक सुन कर उसके हृदय में बड़ी जलन , उम्पन्न हुई ॥१॥ करइ विचार कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाज कवनि बिधि राता ॥ देखि लागि मधु कुटिल किराती । जिमि गवं तकइ लेउँ केहि भाँती ॥२॥ यह खोटी जाति और नीच-बुद्धिचाली दासी विचार करने लगी कि यत ही भर में किस वरह काम बिगड़ सकता है । जिस प्रकार (मक्खी की छोत ) लगी देख कर दुष्टा मिल्लिनी धात लवती हो कि किस तरह मधु को लेॐ ॥२॥