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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९८

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। . द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४३ गति प्यारो हो । पर जो मन, कर्म, वचन से चरणों, में अनुरक हो, हे दयासिन्धु ! क्या उसको स्वागना चाहिए ॥ ॥ दो-करुनासिन्धु सुबन्धु के, सुनि मृदु बचन बिनीत। समुझाये उर लाइ प्रभु, जानि सनेह सभीत ॥७२॥ दयासागर रामचन्द्रजी ने श्रष्ठ बन्धु के कोमल नम्रतायुक्त वचन सुन और उन्हें स्नेह से भयभीत जान वृदय में लगा कर समझाया कि खेद का काम नहीं है ॥७२।। चौ-माँगहु बिदा मातु सन जाई । आवहु बेगि चलहु बन भाई ॥ मुदित भये सुनि रघुबर बानी। भयउ लाम बड़ गइ बड़ि हानी ॥१॥ हे भाई | जाकर माताजी ले बिदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो । रघुनाथजी के वचन सुन कर लचमणजी प्रसन्न हुए, उन्हें बड़ा लाभ हुश्रा और बड़ी हानि दूर हुई ॥१॥ हरषित बदन मातु पहिँ आये । मनहुँ अन्ध फिरि लोचन पाये ॥ जाइ जननि-पग नायउ माथा । मन रघुनन्दन जानकि साथा ॥२॥ प्रसन चित्त से माता के पास आये, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों अन्धे ने फिर से भारत पाई हो । जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया; किन्तु मन उनका रघुनाथजी और जान- कीजी के साथ हैं ॥२॥ पूछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेखी ॥ गई सहमि सुनि बचन कठोरा । मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा ॥३॥ उदास मन देख कर माताजी ने पूछा, तब लक्ष्मणजी ने सब कथा विस्तार से कही। इस कठोर धवन को सुन कर सहम गई , वे ऐसी मालूम होती हैं मानों मृगी चारों ओर दावा- नल देख कर भयभीत हे ॥३॥ लखन लखेउ भा अनरथ आजू । एहि सनेहबस करब अकाजू ॥. माँगत बिदा समय सकुचाही। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं ॥४॥ लक्ष्मणजी ने सोचा कि आज श्रनथ हुश्रा, यह स्नेहवश अकाज करेगी। विदा मांगते हुए डरते और सकुचाते हैं कि, या विधाता! साथ जाने को कहती है या नहीं ॥४॥ सुमित्रानी को शोक रामचन्द्रजी के वनवास पर हुआ कि केकयी ने तो सर्वनाश कर डाला, परन्तु लक्ष्मणजी ने सोचा कि यह मेरे बन जाने सम्बन्ध में न्याकुल हुई है। और बात को और मान लेना 'मान्ति अलंकार' है । वन को जाने के लिये कहेगी या नहीं, एक भी मन में निश्चय न होना 'सन्देह अलंकार' है।