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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२७

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५४ रामचरित मानस । महिमा यह न जलधि के बरनी । पाहन गुन न कपिन्ह कै करनी ॥५॥ यह समुद्र की महिमा नहीं वर्णन की है, न पत्थर का गुण है भौर न पामरों की दो-श्रीरघुबीर प्रताप , सिन्धु तरे पापोन । ते प्रतिमन्द जे राम लजि, अजाहिँ जाइ प्रनु आन ॥३॥ श्रीरघुनाथजी के प्रताप से समुद्र में पत्थर उतरा गये। उन रामचन्द्रजी को छोड़ कर जो दूसरे स्वामी को जा कर भजते हैं, वे नीच-बुद्धि है ॥ ३॥ समुद्र की महिमा और वानरों के गुण का निषेध कर के उसके धर्म को 'रघुवीर- प्रताप में स्थापन करना 'पर्यस्तापह ति अलंकार' है। रामचन्दजी विषयक रतिमाव के प्रक खेशान्तरस का वर्णन होना 'रसवत अलंकार है। चौ०-बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनाना । देखि कृपानिधि के मन भावा ॥ चली सेन कछु बरनि न जाई । गरजहि मरकट भट समुदाई ॥१॥ सेतु बँध गया, उसका बहुत अच्छा मजबूत बनावट देख कर कृपानिधान रामचन्द्रजी के मन में वह सुहावना लगा। सेना चली, उसका वर्णन कुछ नहीं किया जा सकता, झुण्ड के अरड वामर योद्धा गरजते हैं ॥१॥ सेतुबन्ध ढिग चढ़ि रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई। देखन कह प्रक्षु करुनाकन्दा । प्रगट भये सब जलचर-बन्दा ॥२॥ बँधे हुए पुल के समीप चढ़ कर कृपालु रधुनाथजी समुद्र का विस्तार देखते हैं। दया के मेघ प्रभु रामचन्द्रजी को देखने के लिए सब जल जीवों के मुण्ड प्रकट हुए ॥२॥ मकर नक्र कख नाना व्याला । सत-जोजन-तन परम घिसाला ॥ ऐसेउ एक तिन्हहि जे खाहौँ । एकन्ह के डर तेपि डेराहीं ॥३॥ मगर, घड़ियाल, मछली और नाना प्रकार के सपै जो बहुत बड़े शरीरवाले चार सौ कोस के हैं। एक ऐसे भी हैं जो उन्हें खा जाते हैं, वे भी (जो सौ योजन लम्बे जीवों को ला जाते हैं) दूसरों के डर से डरते रहते हैं ॥ ३ ॥ इस अतिशयोक्ति खे समुद्र की आगाधता सूचित करने की ध्वनि है। प्रभुहि बिलोकहि दरहिँ न टारे । मन हरषित सब भये सुखारे । तिन्हकी आट न देखियबारी । मगन भये हरि रूप निहारी ॥४॥ वे सर्व प्रभु रामचन्द्रजी को देखते हैं और हटाने से भी नहीं हटते, प्रसन्न होकर मन में सुखी हुए हैं। उनकी आड़ में जल नहीं दिखाई देता है, भगवान की छवि देख कर मग्न हो गये हैं॥४॥