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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९१

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t रामचरितमानस। ९१६ मानुषीय प्रकृति के अनुसार रामचन्द्रजी की व्याकुलता और शोक प्रदर्शित करना कविजी को असीष्ट है, इसी से जान बूझ कर कुछ ऐसी असंगत बाते कहलाई गई हैं जिनका ठीक ठीक अर्थ करना असम्भव सा प्रतीत होता है। सकहु न दुखित देखि माहि काऊ । बन्धु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥ मन हित लागि लजेहु पितु माता। सहेउ विपिन हिम आतप बाता॥२॥ हे भाई ! तुम्हारा स्वभाव सदा कोमल रहा, मुझे कभी दुखी नहीं देख सकते थे। मेरे उपकार के लिए पिता-माता को त्योग दिया और धन में शीत, धाम तथा लू सहम किये ॥२॥ सो अनुराग कहाँ अब लाई । उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ॥ जाँ जनतेउँ बन बन्धु बिछोह । पिता बचन मनतेउँ नहिँ ओह ॥३॥ हे भाई! अर वह प्रेम कहाँ है? मेरी व्याकुलता भरी वाणी सुन कर उठते क्यों नहीं ? यदि मैं जोनता कि धन में बन्धु का वियोग होगा, तो पिता की उस बात को भी न मानता॥३॥ पिता के उस बटन को भी मानते' इस वाक्य में ध्वनि प्रकट हो रही है कि इस चांदह वर्ष के वनवास की बात दूर रहे, वह जो सुमन्त ले उन्होंने कहा था-"रथ चढ़ाइ दिखराइ वन, फिरे गये दिन चारि" न मानते । यहाँ लोग तरह तरह की बातें कहते हैं, उनका उल्लेख करना व्यर्थ है। हाँ यह शङ्का हो सकती है कि क्या मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्रजी सचमुच पिता के वचनों का तिरस्कार करते १ सो यह प्रकरण ही प्राकृत नर की भाँति कथन प्रलाप- मय है, अतएव ऐसी शक्का निर्मूल है। सुत वित नारि भवन परिवारा। होहि जाहि जग बारहि बारा ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता । मिलइ न जगत सहोदर भ्राता uen पुत्र, धन, ली, घर कुटुम्ब संसार में बार बार होते और जाते हैं। परन्तु हे तात ! मन में ऐसा विचार कर सचेत हो जमश्री, जगत में सहोदर-बन्धु (बार बार) नहीं मिलते ॥४॥ लक्ष्मणजी विमातृज (दूसरी माता से उत्पन ) वन्धु हैं, फिर रामचन्द्रजी ने सहोदर क्यों कहा ? उत्तर-यह कथन प्रलाप-मय' असंगत है जिसका ठीक ठीक अर्थ हो नहीं सकता। तो भी समाधान के लिये कुछ कहना पड़ता है । सहोदर शब्द की व्युत्पत्ति करने से 'सह उदर यत्या निष्कपट भाव सिद्ध होता है । अथवा यज्ञ से उत्पन्न होने के कारण सहोदर कहा। वाल्मीकीय में भी ऐसा ही कथन है "देश देश कलमाणि देशेदेशे च मान्धवाः । तंतु देशं न प. श्यामि यत्र भ्राता सहोदर"। जथा पड बिनु खग अति दीनां । मनि भिनु फनि करिवर कर हीना ॥ अस मम जिवन बन्धु विनु तोही। जौं जड़ देव जियावइ माही ॥५॥ जिस तरह पञ्जा के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सँह के बिना हाथी अत्यन्त ।