१५६ राष्ट्रभाषा पर विचार कि उर्दू वस्तुतः 'उर्दू' यानी शाहजहानाबाद के 'लालकिला' की जवान है। और यदि अब भी प्रतीत न हो तो कुछ और भी टॉक लो। देखो, कहते हो-'उसका साहित्य हिंदी के साहित्य से पुराना है। ब्रज और अवधी के साहित्य से भी पुराना है।' तो लो, सुनो। सुदूर दक्षिण से मौलाना बाकर 'आगाह' की गोहार आ और हिंदुस्तान मुद्दत लग ज़बान हिंदी कि उसे ब्रज भाषा बोलते हैं रवाज रखती थी अगरचे लुगत संस्कृत उनको अस्ल उसूल और मखरज फनून फोरम उभूल है। पीछे मुहावरा ब्रज में अल्फाज अरबी व फारसी बतदरीज दाखिल होने लगे। सबब से इस आमेज़िस के यह जवान रेखता से मुसम्मा हुई। जद सुनाई व ज़हूरी नज्म व नस्ल फारसी में बानी तज जदीद के हुए हैं वली गुजराती गज़ल रेखता की इंजाद में सभों का मुब्तदा और उस्ताद है। बाद उसके जो सखुन संजाने हिंद बरोज़ किए ! वेशुबहा उस नहज को उससे लिए। और मिन बाद उसको बासलूब खास मखसूस कर दिए और उसे उर्दू के भाके से मौसूम किए ! (मदरास में उर्दू, सन् १६३६ ई०, पृ०४६) ध्यान दो कि वेलोर (मदरास) से सन् १२११ हि० में मौलाना वाकर क्या कह रहे हैं और आप को 'आगाह' कर किस प्रकार अपने 'आगाह' उपनाम को सार्थक कर रहे हैं। कहते हैं कि पहले हिंदुस्थान में ब्रज भाषा का प्रचार था कि जिसका कोष, पिंगल, अलंकार आदि संस्कृत पर आश्रित था। पीछे उसमें अरबी और फारसी के शब्दों की भर्ती होने लगी जिससे उसका नाम रेखता पड़ा; जैसे फारसी के गद्य-पद्य में सनाई और जहूरी नवीन धारा के प्रवर्तक माने जाते हैं वैसे ही वली गुजराती इस नई धारा के ! उसके बाद सभी लोगों ने उसका अनुकरण किया और