सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राष्ट्रभाषा पर विचार ही सब कुछ कैसे मान सकते हैं ? उन्हें तो किसी पितृभाषा को महत्त्व देना ही होगा । तात्पर्य यह कि भाषा के प्रश्न पर भावुकता से विचार नहीं हो सकता। यहाँ तो विवेक से काम लेना होगा और कुछ ऐसा उपाय करना होगा जिससे जन्मभाषा द्वारा राष्ट्रभाषा को शक्ति मिले, कुछ कड़ी फटकार नहीं। हिंदी राष्ट्रभाषा ही नहीं, एक बड़े भूभाग की शिष्ट भाषा भी है। द्रविड़ भाषाओं से हिंदी का जन्मजात नाता नहीं; पर संस्कृति का संबंध तो उनसे अवश्य है ? गुजराती, मराठी, बंगला श्रादि देशभाषाओं से हिंदी का सजातीय संबंध है तो राजस्थानी आदि से स्वजातीय और ब्रजभाषा अवधी आदि को तो उसका स्वगत भेद ही समझना चाहिए। निदान, मानना ही पड़ता है कि भाषा के क्षेत्र में भारत की सभी प्रमुख भाषाओं को एक साथ ही नहाँ हाँका जा सकता । उनके अलग-अलग रूप और अलग- अलग शक्ति पर विचार करना ही होगा और यह भी देखना ही होगा कि हमारी इस जनपदीय चेष्टा से कहीं एक ही घर में फूट तो नहीं मच रही है। उदाहरण के लिये पंचाल जनपद को लीजिए। कुरुपंचाल का कुछ ऐसा संबंध जुदा था कि पांचाली' 'कौरवी' हो गई। अर्थात् पांचाली नाम की कोई अलग भाषा नहीं रही। फिर भी यदि कहा जाता है कि पंचाल जनपद की उच्च से उच्च शिक्षा पांचाली में ही होगी तो इसका अर्थ है कि सभी अपने आपको विश्वविद्यालय समझ लें और अपनी अपनी बोली में विश्व का निर्माण करें। पर दुनिया जानती है कि यह नहीं होने का । मनुष्य अपना प्रसार चाहता है, वटोर नहीं। सबको मिलकर किसी एक को महत्त्व देना ही होगा। नहीं तो किसी को कोई पूछेगा क्यों ? तू कहीं और मैं कहीं से किसी का काम नहीं चलता।