२३- राष्ट्रभाषा में ढीलढाल निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को भूल । राष्ट्र जिस विकट परिस्थिति में पड़कर अपना मार्ग निकाल आगे बढ़ रहा है उसके दिग्दर्शन से कोई लाभ नहीं । उसका थोड़ा बहुत पता सभी को है। आज सभी अपनी उन्नति में लीन हैं और रह रहकर इस बात का अनुभव कर रहे हैं कि अपनी भाषा के बिना अपना कल्याण नहीं। किंतु उनमें से कितने जीव ऐसे हैं जो वास्तव में इस अपनेपन को पहचान रहे हैं ? कहते हैं राष्ट्र- भाषा का प्रश्न सुलझ गया। सच कहते हैं । राष्ट्रभाषा हिंदी घोषित जो हो गई। किंतु यह भाषा ही तो है जिसके लिये मनुष्य को आज अपने 'नुकसान' के 'अधिकार' की सूझ रही है ? निश्चय ही हमारे देश की भावना इतनी विगड़ चुकी है कि उससे सहसा कुछ बनते दिखाई नहीं देता। तो भी हमारा पावन कर्तव्य है कि हम उसे ठीक करें । राजनीति के अखाड़े को गरम करने से मानव का काम नहीं बनवा । नहीं। इससे तो इंसान का उस मारा जाता और मानव झट दानव बन जाता है। फिर तो किसी से करते धरते नहीं बनता। निदान राजनीति के तनाव को नरम करने की माँग होती और प्राणी प्राण की पुकार पर कान देता है। आज से साठ वर्ष पहले राष्ट्र के बालहृदय ने देख लिया कि 'नागरी से उसका कितना लगाव है। 'नागरीप्रचारिणी सभा' 'छात्र सभा का नाम है कुछ क्षात्र सभा का नहीं। काट-छाँट से उसका नाता नहीं, हाट बाट से उसका लगाव अवश्य है। घर- बार से पोथी पत्र तक जिसका प्रसार हो उसी की शिक्षा विद्यार्थी