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पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५२

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राष्ट्रभाषा कि स्वरूप अदाएँ बलाकी सितमका जमाल', यह सजधज कयामत वह श्राफ़त की चाल । मेरे इश्क का लोग भरते थे दम, नहीं झूठ कहती खुदा की कसम । इस दावे की पुष्टि जनाब 'अरशद' गोरगानी यों करते है-- किताबें जितनी हैं आसमानी जबाने उम्दा हैं सब की लेकिन खुदा ने हरगिज़ न की इनायत किसी को इनमें ज़बाने उर्दू । उर्दू किस सौभाग्यशाली पर नाजिल हुई ? सुनें, उन्हीं का कहना है-- जनावे शाहबे केरॉ२ प नाज़िल फ़क़त यह नेअमत खुदा ने की थी। उन्हीं की औलाद है इनकी वारिस वही हैं पैगंबराने उर्दू । और ज़बाने उर्दू के हमीं हैं वाली हमों हैं मूजिद हमीं हैं बानी", मकी नहीं हम तो देख लेना रहेगा वीरों मकाने उर्दू। किंतु आजकल बहुत से लोग ऐसे निकल आए हैं जो अपने आप को उर्दू का वारिस समझते हैं और उर्दू को अपनी 'मादरी' जवान तक कह जाते हैं। उनकी इस चेष्टा को देखकर 'फरहंगे आसफिया' के विधाता मौलवी सैयद अहमद देहलवी को यह घोषणा करनी पड़ी-- हम अपनी ज़बान को मरहठीबाज़ों लावनीबाजों की ज़बान, घोत्रियों के खंड, जाहिल खयालबंदों के खयाल, टेसू के राग यानी वे सर व पा अल्फाज़ का मजमूथा बनाना कभी नहीं चाहते, और न उस आज़ादाना उर्दू को ही पसंद करते हैं जो हिंदुस्तान के ईसाइयों, नव मुसलिम भाइयों, ताज़ा विलायत साहब लोगों,' १-सौंदर्य । २--सौभाग्यशाली, शाहजहाँ की उपाधि । ३---स्वामी ४-प्राविष्कम् । ५--प्रवर्तक । ६-गृही।