अपने पास बुला लिया (कि इसको मेरे गणों में होना चाहिये)। परन्तु लँगरी राय अभी मरा नहीं है अतएव दूसरा अर्थ करना असंभव है।
नोट—"उसके पश्चात् सुन्दर केशर मय चंदन की खौड़ दिये, हिये पर पुष्प माला धारण किये हुए, वीरता के छत्तीसों वस्त्र लिये लंगरी राय ने पसर की।" 'रासो-सार', पृ॰ १०२ ।
कबित्त
भावार्थभावार्थ—रू॰ ८०—लंगा तलवार उठाये हुए शत्रुओं के बीच में घूम रहा था। तलवार पर तलवार के वार पड़ने से (उसी प्रकार की बिजली की लपक निकलती थी जैसी कि) बादलों के किनारे के समीप दिखाई पड़ती है। (लंगा) सुलतान (गोरी) से (युद्ध में) उसी प्रकार लगा जिस प्रकार अग्नि दावाग्नि में दग उठती है (अर्थात दावानल वन में लग जाती है)। लंगा उसी प्रकार आगे बढ़ा जिस प्रकार लंगूर (वीर हनुमान) (लंका में) आग लगा कर बड़े थे। एक बार में उसने अखाड़े के मल्लों (अर्थात् विपक्षियों) को उझाल दिया और दूसरे बार में उसने उन्हें झाड़ कर एक जगह इकठ्ठा कर दिया। जब उसने एक बार किया तो (उसके सामने शत्रुओं का) रुकना ही कठिन हो गया और फिर दुबारा उसने तेग उठाई (अब शत्रु की रक्षा कैसे होगी)। या—'एक बार तो वह कठिनाई से (शत्रु के बार से) बक्षा परन्तु तुरंत ही उसने फिर तलवार ऊपर उठाई'—ह्योर्नले।
शब्दार्थ—रू॰ ८०—लंगा=वीर लंगरी राय। लोह=तलवार। उचाइ=उठाये, ऊँचा किये। घुम्मर=घूमता हुआ। मज्झै<मध्ये=बीच में। बद्दर=बादल। यौं लाग्गौ सुरतांन=सुलतान के वह इस प्रकार लगा। दंगं=दग उठना
दावानल=दावाग्नि। लंगूर=हनुमान, जिन्होंने लंका में आग लगा दी थी, [वि॰ वि॰ प॰ में]। इक मार=एक मार में अर्थात् तल-