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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/२६

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  • रखनऊ का कत्र * यार था, जिसके साथ मैं तुम्हें छोड़कर घर से निकल आई थी।" ___आह ! गाया जहरीला तीर किसीने मेरे जिगर में मारा ! मैं साब पैच खाकर उस करन की तरफ़ फिर दौड़ा, लेकिन होशियार रहने के सबब वह फिर भाग चली और चारपाई के कई चक्कर लगाने पर फिर भी वह मेरे हाथ न आई । लाचार, में ठहर गया और कुछ लोच समझ कर मैंने उससे कहा--- ____"अच्छा, अगर तुम दिलाराम बनने का दावा करती हो तो

मेरे कुछ सवालों का जवाब दोगी? " ___उसने कहा, "बेशक दूंगी और यह साबित कर दूंगी कि मैं दिलाराम हूँ। यह सुनकर मैंने कहा,-" अच्छा, यह बतलाओ कि मेरी और तुम्हारी पेश्तर मुलाकात कहां पर हुई ?" बह:--"मुहर्रम के मेले में,बड़े इमामबाड़े की वावलोके ऊपर।" यह एक ऐली बात थी कि जिले सुनकर मैं घबरागयों और ताब से उसके माह की तरफ निहारता हुआ बोला- अल्लाह.यह वात तुमने किससे सुनी ?" वह,-"मांजअल्लाइ ! अभीतक तुम मेरे दिलाराम होने में शक कर रहे हो ! मैं,-"शक तो क्या,मैं तुम्हें दिलाराम हर्गिज़ नहीं मान सकता वह,-"यह तुम्हारी खुशी ! और ऐसीही बात पर मैं कहती हूँ कि अगर तुम्हें मुझे छोड़ना ही था तो तुमने नजीरकी जान को ली! भाखिर तुम्हारे छोड़ने पर मुझे एक को सहारा तो था !" ____ आह, यह बात सुनकर फ़िर मैं मारे गुस्से के भूत होगया और बोला,"फाहिशा, दिलाराम ! तभी तू अपने मुहमें कालिख लगा कर मरे रूबरू आई है ! मैं यह नहीं जानता था कि तू ऐली फ़ाहिया है! लेकिन खैर, मैंने कुछ समझकर ही नजर को कल कर और उसे पहिचानकर उसकी लाश पर थकाथा! बसअब तूजा और यहाँ