लिली बात होगी । मुझे कल्पना से इसका ठोस आनंद कुछ कुछ मिल रहा है।" शंकर ने चिट्ठी की तरफ देखकर कहा ! "कल्पना नहीं, खरबूजे-सा अपना भी हाल समझो। रोज साथ किसका होता है ? यह उसी का रंग चढ़ रहा है, जो तजवीज इतनी चोखी उतर रही है। प्रेमकुमार ने आत्मप्रसाद के उदात्त भावों से कहा। "पके खरबूजे को स्यारों से बड़ा बर है।" । दूसरे दिन पाँच बजे प्रात: नहाकर, पूरा शृगार कर, प्रेम- कुमार छड़ी लेकर छोटेलाल के पुल की ओर, ठीक छ बजे, चल दिए । आठ बजे तक घाट की ओर टहलते, छत्री पर उठते- बैठते रहे । आठ बज गए, नौ बज गए, दस बज गए, किसी ने भी उनसे आकर न कहा, प्यारे, तुम इतने परेशान हो मेरे लिये, मैं ही तुम्हारी शांति हूँ। बल्कि एक अज्ञात मनुष्य ने पूरी उइंडता से पेश आकर कहा- आप बड़ी देर से यहाँ टहल रहे हैं, और मैं देखता हूँ, जो भी औरत आती है, आप बुरी तरह दूरते हैं, क्या आपको इस तरह नज़र लड़ाते वक्त अपनी मा बहनों की बिलकुल याद नहीं आती ?" पाप बड़ा डरपोक होता है। कुछ जवाब दें, प्रेमकुमार को ऐसी हिम्मत न हुई । चेहरा उतर गया ! चुपचाप सीढ़ियों चढ़कर बादशाह-बारा की गह ली । होस्टल में जाकर लेट रहे। उस रोज खाना न खाया।