सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:लिली.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लिली उन्हीं दिनों बँगला-उपन्यासों की बाढ़ से हिंदी की नई संतानों के नाम-करण में भी युगांतर आ गया था। रामदास, शिवप्रसाद, कालीचरण श्रादि नामों की पौराणिक परा- धीनता बल खाते हुए बंगालियों के वासंतिक बालों से दबकर दम तोड़ रही थी, और 'शिशिर', 'विनोद', 'प्रदीप', 'प्रमोद आदि स्वतंत्र-पत्रों की तरह वास्तव-साहित्य की डालों पर, घर-घर, उग चले थे। बालिकाएँ लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और यमुना आदि की मंद रूढ़ियों से छट-छुटकर आशा और लता आदि से ललित, लचीली होकर, साहित्य के विटय ये लिपट रही थीं। यह लालच, भगवान् ही जाने क्यों, पं० राम- प्रसादजी भी नहीं छोड़ सके। विवाह के साल ही-भर में उत्पन्न हुए लड़के का नाम किमचंद्र रक्खा । पर, बड़ा होकर, गाँव जाकर, यहाँवालों के स्वाधीन उच्चारण में, एक ही रोज में, बंकिम बाँके बन गया। पं० रामप्रसादजी बाकायदा कर्मचारी भक्त-वृदों के यहाँ रामायण-पाठ करते हैं, कभी यहाँ, कभी वहाँ । अपनी उदात्त व्याख्याओं द्वारा यह विश्वास उन्होंने उनमें जमा दिया है कि रामायण के वर्णन में आया हुआ विहावलपुर ही आज. कल की वलायत है। वहाँ जानेवालों के राक्षसभाव, भोजन- पान तथा संग-संसर्ग आदि दोषों के कारण, चूंकि प्रबल हो जाते हैं, इसलिये करुणा-निधान महाराज श्रीरघुनाथजी उन्हें अपने चरणारविंदों में स्थान नहीं देते। ऐसे कई और भी