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प्रेम का स्वप्न
 

होकर बोले―क्यों माधवी! तुम्हारा तो विवाह हो गया है न?

माधवी के कलेजे में कटारी चुभ गयी। सनल नेत्र होकर बोली―हाँ, हो गया है।

बालाजी―और तुम्हारा पति?

माधवी―उन्हें मेरी कुछ सुध ही नहीं। उनका विवाह मुझसे नहीं हुआ?

बालाजी―विस्मित होकर बोले―तुम्हारा पति करता क्या है?

माधवी―देश की सेवा।

बालाजी की आँखों के सामने से एक पर्दा-सा हट गया। वे माधवी का मनोरथ जान गये और बोले-माधवी! इस विवाह को कितने दिन हुए?

बालाजी के नेत्र सजल हो गये और मुख पर जातीयता के मद का उन्माद-सा छा गया। भारतमाता! आज इस पतितावस्था में भी तुम्हारे अंक में ऐसी-ऐसी देवियाँ खेल रही हैं, जो एक भावना पर अपने यौवन और जीवन की आशाएँ समर्पण कर सकती हैं। बोले―ऐसे पति को तुम त्याग क्यों नहीं देती?

माधवी ने बालाजी की ओर अभिमान से देखा और कहा-स्वामीजी! आप अपने मुख से ऐसा न कहें! मैं आर्य-वाला हूॅ। मैंने गान्धारी और सावित्री के कुल में जन्म लिया है। जिसे एक बार मन से अपना पति मान चुकी उसे नहीं त्याग सकती। यदि मेरी आयु इसी प्रकार रोते-रोते कट जाय, तो भी अपने पति की ओर से मुझे कुछ भी खेद न होगा। जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेगा मैं ईश्वर से उनका हित चाहती रहूँगी। मेरे लिए यही क्या कम है, जो ऐसे महात्मा के प्रेम ने मेरे हृदय में निवास किया है? मैं इसी को अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने एक बार अपने स्वामी को दूर से देखा था। वह चित्र एक क्षण के लिए भी आँखोंसे नहीं उतरा। जब कभी मैं बीमार हुई हूँ, तो उसी चित्र ने मेरी सुश्रवा

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