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पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४५

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विनय-पत्रिका ४६ जयति विश्व-विख्यात वानेत-विरुदावली विदुष बरनत वेद विमल बानी। दास तुलसीत्रास शमन सीतारमणसंगशोभित राम-राजधानी॥९॥ भावार्थ-हे हनुमान्जी ! तुम्हारी जय हो । तुम अञ्जनीके गर्भरूपी समुद्रसे चन्द्ररूप उत्पन्न होकर देवकुलरूपी कुमुदोंको प्रफुल्लित करनेवाले हो, पिता केशरीके सुन्दर नेत्ररूपी चकोरोंको आनन्द देनेवाले हो और समस्त लोकोंका शोक, सन्ताप हरनेवाले हो॥ १॥ तुम्हारी जय हो, जय हो । तुमने बचपनमें ही बाललीला- से उदयकालीन प्रचण्ड सूर्यके मण्डलको लाल-लाल खिलौना समझकर निगल लिया था । उस समय तुमने राहु, सूर्य, इन्द्र और वज्रका गर्व चूर्ण कर दिया था। हे शरणागतके भय हरनेवाले, हे विश्वका भरण-पोपण करनेवाले !! तुम्हारी जय हो ॥ २॥ तुम्हारी जय हो, तुम रणमें बडे धीर, सदा श्रीरामजीका हित करनेवाले, देव-शिरोमणि रुद्रके अवतार और ससारके रक्षक हो । तुम्हारा शरीर ब्राह्मण, देवता, सिद्ध और मुनियोंके आशीर्वादका मूर्तिमान रूप है। तुम निर्मल गुण और बुद्धिके समुद्र तथा विधाता हो॥३॥ तुम्हारी जय हो ! नुम सुग्रीव तया रीछ (जाम्बवन्त ) आदिकी रक्षा करनेमे कुगल हो महाबलवान् बालिके मरवानेमें तुम्ही मुख्य कारण हो । तुम्ही समुद्र लौवनेके समय सिंहिका राक्षसीका मर्दन करनेमें सिंइम्स नया राक्षसोंकी लंकापुरीके लिये धूमकेतु (पुच्छल तारे ) रुप हो ।॥ ४ ॥ तुम्हारी जय हो। तुम सीताजीको राम- का संग्गा मुनाकर उनकी चिन्ता दूर करनेवाले और रावणके अगोकायनो उजाइनेवाले हो। तुमने अपनेको निःशङ्क होकर