पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८८

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ज्ञान नहीं। स्थूल और सूक्ष्म जगत् मानों एक ही आकार के हैं; उनमें एक ही परदा बदलता और एक ही राग बजता है।

मैं आपके सामने हिंदुओं के इस विचार को रखने का प्रयत्न करूँगा कि धर्म बाहर से नहीं उत्पन्न होता, अपितु भीतर से निकलता है। मेरी यह धारणा है कि धर्म मनुष्य की प्रकृति ही है; यहाँ तक कि जब तक वह अपने मन और शरीर को न छोड़े, अपने विचार और जीवन को न त्यागे, धर्म का छोड़ना असंभव है। जब तक मनुष्य में विचारने की शक्ति है, यह झमेला बना है, तब तक मनुष्य को किसी न किसी रूप में धर्म रखना ही पड़ेगा। यह भूलभुलैयाँ सी बात है। पर जैसा कि हम में से बहुतेरे समझते हैं, यह असार विचार नहीं है। इस अव्यवस्था में व्यवस्था है, इस बेताली ध्वनि में ताल स्वर है; और जो इसे सुनना चाहे, स्वर को ग्रहण कर सकता है।

आजकल सारे प्रश्नों से बड़ा प्रश्न यह है कि अच्छा मान लीजिए कि यह ज्ञात और ज्ञेय दोनों ओर से अज्ञेय और अतीव अज्ञात से संपुटित है, तो फिर उस अत्यंत अज्ञात के लिये यह श्रम क्यों है? हम ज्ञेय ही से संतुष्ट क्यों न रहें? हम खाने-पीने और समाज का कुछ थोड़ा सा उपकार करने पर ही संतोष क्यों न धारण करें? इस बात की हवा फैली हुई है। बड़े बड़े विद्वान् अध्यापक से लेकर बकवादी बच्चों तक सब यही कहा करते हैं कि संसार में भलाई करो; यही सबसे बड़ा धर्म है और इससे परे के प्रश्न पर माथा खपाना व्यर्थ