पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ३०३ ]

होता है। मन में यह भले प्रकार समझ लेना चाहिए कि मनुष्य में प्रत्यगात्मा नहीं है। मैंने पहले इसे समझाने के लिये मान लिया था। पर यहाँ केवल एक ब्रह्म ही है, एक ही आत्मा है; और जब उसी को इंद्रियों के द्वारा, इंद्रियों की भावनाओं से देखते हैं, तब उसी को शरीर कहते हैं। जब उसी को विचार द्वारा देखते हैं, तब मन कहते हैं। और जब उसे उसी के रूप में देखते हैं, तब उसी को आत्मा या अद्वितीय ब्रह्म कहते हैं। अतः यह ठीक नहीं है कि एक ही में तीन पदार्थ हैं―शरीर, मन और आत्मा। यद्यपि समझाने के लिये ऐसा मान लिया गया था, पर सब आत्मा ही हैं। उसी को भिन्न भिन्न दृष्टियों से कभी शरीर, कभी मन और कभी आत्मा कहते हैं। एक ही सत्ता है जिसे अज्ञानी संसार कहते हैं। जब मनुष्य कुछ और ऊँचे जाता है तब उसी सत्ता को वह विचार का लोक वा मनोलोक कहता है। फिर जब ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और अज्ञान का नाश हो जाता है, भ्रम मिट जाता है, तब मनुष्य को जान पड़ता है कि यह सब आत्मा ही है, दूसरा कुछ नहीं। सोऽहम्―मैं वह ब्रह्म हूँ; यह अंतिम सिद्धांत है। विश्व में न तीन हैं, न दो हैं, केवल एक है, सब एक ही है। वही एक माया के कारण अनेक भासमान हो रहा है, जैसे रज्जु में सर्प। यह वही रज्जु है जो साँप भासमान हुआ था। दो पदार्थ नहीं हैं, रस्सी अलग और साँप अलग। कोई इन दोनों को एक साथ एक ही स्थान पर देखता है। द्वैत और अद्वैत अति सुंदर दार्शनिक शब्द हैं;