पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मयोग
५१
 

सैकड़ों बातें जानता था, और उसकी इस नई आकृति ने मेरे मन में सेकड़ों अनुकूल बातें पा ली और वे सब संस्कार जाग उठे। उन सौ व्यक्तियों की अपेक्षा उसकी मेरी दृष्टि पर कहीं अधिक छाप पड़ी और फलतः उसका मन पर गहरा प्रभाव पड़ना ही चाहिये।

इसलिये आसक्ति छोड़ो। कर्म-चक्र चलने दो; मानसिक केंद्र अपना कार्य करते रहें। तुम स्वयं अनवरत काम करो किंतु एक भी लहर को अपने मन पर अधिकार न करने दो। इस तरह काम करो जैसे तुम यहाँ एक पथिक, एक अपरिचित आगंतुक मात्र हो। अविरत काम करो किंतु सांसारिक वस्तुओं से नाता न जोड़ो। दासता भयानक है। यह संसार हमारा घर नहीं; जिन अनेक मंजिलों में से होकर हमें जाना है, उन्हीं में से यह एक है। साँख्य के उस महावाक्य का स्मरण रक्खो,- "समस्त प्रकृति आत्मा के लिये है, आत्मा प्रकृति के लिये नहीं।" प्रकृति का अस्तित्व आत्मा की शिक्षा के लिये ही है। अन्य उसका अर्थ नहीं। वह इसलिये है कि आत्मा को अपना ज्ञान हो और ज्ञान-द्वारा वह मुक्त हो। यदि हम यह बात याद रखें तो हम प्रकृति में कभी आसक्त न हों। हम यह जानें कि प्रकृति एक पुस्तक के समान है, जिसमें हमें एक पाठ याद करना है; जब वह पाठ हमें याद हो जायगा तो उसकी आवश्यकता न रहेगी। परन्तु ऐसा समझने के बदले हम प्रकृति से अपना एकत्व मान बैठते हैं। हम सोचते हैं, आत्मा प्रकृति के लिये है, शरीर