का आरोप करना पड़ा जो अखंड, अनंत, विभु और विश्व-व्यापक हो, जो अण्वात्मक न हो । इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म अखंड
और व्यापक द्रव्य का नाम उन्होंने ईथर रखा । आप आकाश द्रव्य कह लीजिए * क्योकि प्रकाश के साथ इसका घनिष्ट संबंध है भी। यह सीसे के गोले के परमाणुओ के बीच भी फैला है और ग्रहो नक्षत्रो के बीच के अंतरिक्ष मे भी। इससे खाली कोई जगह नहीं। यह सर्वत्र अखड और एकरस है।
ईथर को दिक् के समान एक शून्य-कल्पना न समझना चाहिए। इसमे घनत्व है, यह भूतद्रव्य को ही एक सूक्ष्म रूप है। वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि इसका घनत्व
* वैशेषिक ने आकाश को दिक् (Space) से अलग माना है और उसे भूत के अंतर्गत किया है । दिक् किसी वस्तु का समवायिकारण नहीं हो सकता, पर आकाश शब्द का समवायि कारण है। न्याय मे उपादान को ही समवायि कारण कहा है, जैसे कपडे के लिये सूत और कुडल के लिये सोना। वैशषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद ने भी कहा है कि द्रव्यों में जो समवाय रहता है वह तादात्म्य रूप से ही। अतः "आकाश शब्द का समवायि कारण है" इस बात को यदि आधुनिक भौतिक विज्ञान के शब्दों में कहें तो कह सकते है कि 'आकाश द्रव्य की तरंगों से ही शब्द बनते हैं'। आधुनिक भौतिक विज्ञान में शब्द वायुतरंग रूप- सिद्ध हुए है, क्योंकि आकाश के रहते भी वायु के बिना शब्द नहीं होता। आकाशद्रव्य के तरगों से प्रकाश की उत्पत्ति होती है । आजकल की इस बात को यदि हम अपने दर्शन के शब्दो में कहे तो कह सकते है कि 'आकाश प्रकाश का समवायिकारण है'