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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३१७

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अध्वर्यु -तू ब्रह्मा है। इस प्रकार अभिषेक समाप्त हुआ। इसके दसवें दिन दाशपेय याग हुआ । सोम से भरे हुए दस प्याले एक यजमान और नौ ऋत्विकों के लिए रखे गए । दासों को कमर झुकाकर प्यालों की ओर रेंगना पड़ा और अपने दादा से लेकर पहले के और पीछे के दस पुरखों के नाम लेने पड़े, जो सोमयाजी रहे हों । उस समय मन्त्र पाठ हुआ “ सविता प्रेरणा करने वाले से , सरस्वती वाणी से , त्वष्टा बनाए रूपों से , पूषा पशुओं से , यजमान इन्द्र से , बृहस्पति ब्रह्मा से , वरुण ओज से , अग्नि तेज से , सोम राजा से , विष्णु दसवें देवता से, प्रेरित होकर मैं रेंगता हूं। " प्रत्येक प्याले में दस - दस जनों ने पिया । एक ऋत्विक और नौ और । यों सौ जनों ने सोमपान किया । राजा ने सबको सोने के कमलों की मालाएं पहनाईं । अब यज्ञ की समाप्ति पर सहस्र शंखध्वनि हुई । विदुडभ राजा ने सींगों में सोना मढ़कर सौ गाएं तथा ग्यारह युवती सुन्दरी स्वर्णालंकारों से अलंकृता दासियां प्रत्येक श्रोत्रिय ब्राह्मण को दीं । ब्रह्मा, उद्गाता तथा अन्य ऋत्विजों को उनकी मर्यादा के अनुसार बहुत - सा स्वर्ण, रत्न , वस्त्र , दासी और बछड़े दिए गए । ___ दान - मान - सत्कार , दक्षिणा, आतिथ्य , भोजन आदि से सन्तुष्ट हो ब्राह्मण महाराज विदूडभ की जय - जयकार करते हुए विदा हुए । समागत राजाओं, जानपद प्रधानों और सेट्रियों , जेटकों आदि को भी विविध भेंट - दान - मान से नये राजा ने विदा किया । जो मित्र , बन्धु और राजा नहीं आए थे, उन्हें गाड़ियों और छकड़ों में सामग्री भरकर भेज दी गई । जो विरोधी यज्ञ-विद्रोह में मारे गए, उनके उत्तराधिकारी पुत्र - परिजनों को दान , मान, पदवी और पुरस्कार से सत्कृत कर सन्तुष्ट किया गया । इस प्रकार यज्ञ में आए सब ब्राह्मण, यति, ब्रह्मचारी, राजा , राजवर्गी, पौर जानपद, सब भांति सन्तुष्ट -प्रसन्न हो महाराज विदूडभ का दिग्दिगन्त में यशोगान करते हुए अपने - अपने घर गए। भाग्यहीन विगलित - यौवन गतश्री प्रसेनजित् को किसी ने स्मरण भी नहीं किया ।