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पृष्ठ:वैशेषिक दर्शन.djvu/२८

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गुण

बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार शब्द जो परिमाण रुई के ढेर में पाया जाता है—एक संयोग से जो दूसरा संयोग उत्पन्न होता है, द्रवत्व [नैमित्तिक], परत्व, अपरत्व ये सब संयोगज हैं, दो द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होते है। बुद्धि से लेकर संस्कार तक जितने कहे गये हैं वे आत्मा—मन के संयोग से उत्पन्न होते हैं, शब्द आकाश और ढोल के संयोग से, इत्यादि। (१६) संयोग और विभाग कर्म, चलनक्रिया, से उत्पन्न होते हैं। (१७) शब्द और एक विभाग से उत्पन्न जो विभाग होता हैं—ये 'विभागज' कहलाते हैं, इनकी उत्पत्ति किसी तरह के विभाग ही से होती है। (१८) परत्व, अपरत्व, द्वित्व, पृथक्त्व, इत्यादि 'बुद्ध्यपेक्ष' हैं—ज्ञानही के द्वारा इनकी उत्पत्ति होती है। अर्थात् जब दो चीजों को कोई आदमी एक दूसरे से अलग समझता है तब इसी ज्ञान से उन चीजों में 'परत्व' गुण उत्पन्न होता है। (१९) रूप, रस, गन्ध, जो स्पर्श गरम नहीं होता, शब्द, परिमाण एकत्व, एक पृथक्त्व, और स्नेह, ये अपने सदृश गुण उत्पन्न करते हैं। (२०) सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न—ये असदृश (अपने से दूसरी तरह के) गुण उत्पन्न करते हैं। कारण का रूप कार्य का रूप उत्पन्न करता है, मिट्टी में जो रूप रहता है उससे घट का रूप बनता है। पर सुख से सुख नहीं उत्पन्न होता है। सुख से इच्छा उत्पन्न होती है प्रयत्न से कर्म उत्पन्न होता है। (२१) संयोग, विभाग, संख्या, गुरुत्व, द्रवत्व, गरम स्पर्श, ज्ञान, धर्म, संस्कार—ये अपने सदृश और अपने असदृश दोनों तरह के गुण उत्पन्न करते हैँ। जैसे बांस के फटने से, उसके दलोंके विभाग से, शब्द उत्पन्न होता है और जब हम अपना हाथ किसी चीजपर से हटा लेते हैं तब हमारे हाथ के विभाग से हमारे शरीर का विभाग भी उत्पन्न होता है। धर्म से धर्म और सुख दोनों उत्पन्न होते हैं। (२२) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, संस्कार, शब्द—ये उन्हीं गुणों को उत्पन्न करते है जो उनके अपने ही आश्रय में रहें। जैसे किसी आत्मा में सुख रहता है वह सुख उसी आत्मा में इच्छा उत्पन्न करता है। (२३) रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, स्नेह, प्रयत्न—ये अपने आश्रय से दूसरी चीजों में गुण उत्पन्न करते हैं। जैसे मिट्टी के ढेले का गुण घट में रूप उत्पन्न